स्वाभिमान बनाम अभिमान
” स्वाभिमान बनाम अभिमान ”
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सांख्य दर्शन की ‘प्रकृति’ की तरह ही मानवीय रचना भी त्रिगुणमयी है ,जिसमें सत्व ,रज और तम गुणों की प्रधानता पाई जाती है | इन्हीं गुणों की प्रबलता और अल्पता के कारण मानवीय गुणों में विविधता पाई जाती है | इसके अलावा चतुर्विध कषाय यथा – काम ,क्रोध ,मद ,लोभ भी मानवीय क्रियाओं और मानवता को निर्धारित करते हैं | चूँकि तीनों गुणों और चार कषायों के वशीभूत होने के कारण मानव एक क्रियाशील और चंचल प्राणि है ,अत : विविध प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति सामान्य बात है | इन्हीं विचारों की श्रृंखला में स्वाभिमान और अभिमान भी उद्गगमित होते हैं | यद्यपि स्वाभिमान और अभिमान में सूक्ष्म अंतर है ,परन्तु यही सूक्ष्म अंतर स्थूल बनकर मानवीय जीवन में विभिन्नता उत्पन्न करता है ,जो कि मानवता के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा देता है |
स्वाभिमान का अर्थ : ~ यद्यपि स्वाभिमान , अभिमान में ही समाहित है ,लेकिन यह स्वधर्म के लिए पूजित होने की भावना पर आधारित होने के कारण श्रेष्ठ है | स्वाभिमान से तात्पर्य है – स्वधर्म के अनुसार स्वयं की आन-बान और शान को बरकरार रखना तथा ‘स्व’ के यथार्थ के साथ-साथ ‘पर’ के यथार्थ की रक्षा करना | स्वाभिमान में निम्नांकित बातें समाहित होती हैं —
१. स्वयं का सम्मान |
२. दूसरों का सम्मान |
३. अपना सम्मान बनाए रखना |
४. दूसरों का अपमान न करना |
५. अभिमान पर विजय प्राप्त करना |
मूल रूप से अभिमान पर विजय प्राप्त करना ही ‘स्वाभिमान’ है ,जिसमें आत्मगौरव, आत्मसाक्षात्कार , आत्मसम्मान और जागृति का समावेश रहता है | दूसरे शब्दों में — ‘स्वाभिमान ‘ स्वधर्म के अनुसार कर्तव्यपरायणता के प्रति सजगता है ,जो व्यक्ति को स्व से पर , मानस से अतिमानस और आत्मा से परमात्मा की ओर ले जाता है | स्वाभिमान वह उच्चतम प्राप्ति है , जो कि पवित्र साध्य के रूप में “अनन्तचतुष्ट्य ” रूप में प्रतिस्थापित होता है ,जिसमें अनन्त ज्ञान ,अनन्त दर्शन ,अनन्त वीर्य (शक्ति) और अनन्त आनन्द समाहित हैं | इन्हीं के कारण मानव ‘ स्व ‘ के साथ-साथ ‘ पर ‘ को भी अनुभूति के द्वारा गौरवशाली बनाता है | यही कारण है कि स्वाभिमान न केवल स्वयं व्यक्ति के लिए अपितु परिवार ,समाज ,राष्ट्र और मानवता के लिए एक नैतिक आदर्श है | यही कारण है कि स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के आदर और स्नेह का पात्र होता है ,क्यों कि स्वाभिमान के ‘ स्व ‘ से कोई आहत नहीं होता है और न ही किसी अन्य को एतराज होता है | स्वाभिमान में ” सत्व ” गुण की प्रबलता होती है |
अभिमान का अर्थ :~ अपने लिए अतिशय पूजित होने की भावना ही ‘अभिमान ‘ है ,जो केवल और केवल अपने लिए ही होती है | दूसरे शब्दों में – अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझना , अपने धर्म ,जाति , वंश , पद , प्रतिष्ठा ,धन-वैभव , ऐश्वर्य इत्यादि का गर्व करना ही अभिमान है | दूसरों के सम्मान की अनदेखी करना और स्वयं का सम्मान चाहना भी अभिमान है | अभिमान में ” तमो गुण ” के साथ-साथ चतुर्विध कषायों की प्रबलता पाई जाती है |
अभिमान – व्यक्ति को घमण्ड और अहंकार से परिपूर्ण करता है , जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वयं को ‘कर्ता-ज्ञाता-भोक्ता ‘ समझने लगता है , जिससे व्यक्ति स्वयं को माया के अध्यास स्वरूप के वशीभूत करते हुए महानता का क्षणिक और अयथार्थ अनुभव करता है | इसी के फलस्वरूप व्यक्ति में ” मैं ” की भावना का जन्म होता है ,जो कि एक मानसिक आतंक और प्रहार है | यही कारण है कि अहंकारी मनुष्य से सभी कतराते हैं |
स्वाभिमान और अभिमान में अंतर
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१. स्वाभिमान विकास का प्रतीक है ,जबकि अभिमान विनाश का प्रतीक है |
२. स्वाभिमान मानवता के हित में है ,जबकि अभिमान अहित में है |
३. स्वाभिमान अद्वैतरूप है ,जबकि अभिमान विकृत रूप है |
४. स्वाभिमान ईश्वरीय अभिव्यक्ति है ,जबकि अभिमान ” मैं ” का स्वरूप है |
५. स्वाभिमान “अहम् ब्रह्मास्मि” का यथार्थ स्वरूप है ,जबकि अभिमान अयथार्थ स्वरूप है |
६. स्वाभिमान सृजनात्मक है ,जबकि अभिमान विनाशात्मक है |
७. स्वाभिमान सकारात्मक अभिव्यक्ति है ,जबकि अभिमान नकारात्मक अभिव्यक्ति है |
८. स्वाभिमान स्वधर्म के अनुरूप है ,जबकि अभिमान में केवल व्यक्तिगत हित की भावना समाहित होती है |
९. स्वाभिमान ‘ सच्चिदानन्द ‘ स्वरूप है , जबकि अभिमान मिथ्यात्मक स्वरूप है |
१०. स्वाभिमान आन-बान-शान है ,जबकि अभिमान केवल स्वार्थों की अभिलाषा है |
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– डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”