स्वर कटुक हैं / (नवगीत)
:: स्वर कटुक हैं ::
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स्वर कटुक हैं
आरती के
औ’ अजानों के ।
खुल गई हैं
फिर दुकानें
यज्ञ, हवनों औ’कथा कीं ।
प्रार्थना,अर-
दास, पूजा
औ’ नमाज़ों कीं, दुआ कीं ।
मूल्य घटते
जा रहे
पावन बयानों के ।
तर्क देकर
पाप छिपते
और छिपतीं वासनाएँ ।
अर्थ-लिप्सा
अंध भक्ति
रच रहीं जैसे ऋचाएँ ।
पैर विचलित
ध्यान के भी
कुछ ठिकानों के ।
मौलवी हैं,
पादरी हैं
और हैं पण्डे बहुत से ।
कर्म त्यागे
धर्म के ही
डालते डण्डे बहुत से ।
पाठ नकली
कर रहे
फिर से पुरानों के ।
स्वर कटुक हैं,
आरती के
औ’ अजानों के ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।