स्वरचित कविता..✍️
खिलते पुष्प की कली तुम,
मैं नील-गगन का सूरज हूं।
अथाह सागर से गहरी तुम,
और मैं सागर का “किनारा” हूं।
तुम पुष्प यदि जो बन जाओ,
मैं सुगंध तुम्हारा बन जाऊं।
श्यामल आकाश से विस्तृत तुम ,
मैं चंद्र सुसज्जित मुस्काऊं।
पर्वत से विराट तुमसे मैं
सरिता बन निः सृत हो जाऊं
सूरज के प्रकाश से दमको तुम
किरण रेख सा चमकूं मैं।
तुम सघन मेघ जो बन जाओ
मैं चंचल चपला बन इतराऊं
तारों के झुरमुट में तुम छिप जाओ
और मैं आकाश गंग में बह जाऊं।
विशाल वट से स्थिर वृक्ष तुम
मैं बनकर लता लिपट जाऊं
चित्रित प्रतिबिंबित तुम मन दर्पण में
मैं स्वयं दर्पण ही बन जाऊं।
दैदीप्यमान तुम परमात्म अंश में,
मैं अंश के अंश में रम जाऊं।
एकाकार मैं हुआ संग तुम्हारे
हर पल श्रृंगार मैं करता जाऊं।
स्वरचित कविता…✍️