स्वयं से सवाल
क्या ठोकरों के डर से, अब चलना ही छोड़ दें
या आंधियों के डर से, निकलना ही छोड़ दें
गिरते – उड़ते ‘क्रेन’, हैं आकाश चूमते
क्या बादलों के डर से, वे उड़ना ही छोड़ दें
गर चाहते हो तुम, चढ़ना पहाड़ पर
तो ठोकरों से तुम, डरना ही छोड़ दो
जीतता है वो , जो चलता सम्भाल के
क्या खटमलों के भय से, बिछौना ही छोड़ दें
लहरें तो सिंधु में, आती ही रहती है
गोता खोर सिंधु में, जाते ही रहते हैं
क्या लहरों के डर से, कश्तियां ही छोड़ दें
खेल में तो जीत – हार, होता है बार-बार
क्या हारने के भय से, अब लड़ना ही छोड़ दें
ठोकरों को जोड़ के, बनता हो जब किला
क्या ठोकरों को डर के, अब शासन ही छोड़ दें
जब ठोकरें ही हम को, दिखाते हों रास्ता
फिर ठोकरों के संग, अब जीना कुबूल है
जीना कुबूल है अब, हंसना कुबूल है
हंसना कुबूल है अब, उड़ना कुबूल है
अब ठोकरों के डर से, ना रुकना कुबूल है ।।
~आनन्द मिश्र
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