स्वप्न
एक अबोध बालक
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – दिल्ली
चाहता हूँ कुछ पलों के लिए मैं स्त्री का रूप ले लूँ।
बन के राधा श्याम की तेरे संग मैं भी फ़ाग खेलूं।
था नहीं प्रारब्ध मेरा जन्म लेना इक नारी समान।
फिर भी अगर मौका मिले तो मैं उसका फायदा ले लूँ।
स्वार्थ की मारी है दुनिया और जगत सारा निरंकुश।
मैं उदधि संग हो सके गर बाल बन लूडो न खेलूं।
देव मेरे कल्पना है , मेरे हृदय की मात्र कोरी कल्पना।
हो सके तो आज मैं, हे प्रभु तुझ को आलिंगन में ले लूँ।
एषणाएँ भिन्न से भिन्नात्मक चिन्हित सदा इस जगत में ।
इस जगत का बुद्ध – बुद्धू हैं करता सदा से इस तरह ।
चाहता हूँ कुछ पलों के लिए मैं स्त्री का रूप ले लूँ।
बन के राधा श्याम की तेरे संग मैं भी फ़ाग खेलूं।
एक आती एक जाती मानसी न कभी इसकी कुम्हलाती ।
हाँथ पैर कांपते हों दृष्टि चाहे हो धुँधलाती मन मगर फिर भी भटकता ।
चाहना इसकी जिवहा की स्वाद पर स्वाद मांगने से बाज न आती ।
कामना एक है पूरी करी करतार ने , दूसरी तुरंत से होंठों पे आती ।
था नहीं प्रारब्ध मेरा जन्म लेना इक नारी समान।
फिर भी अगर मौका मिले तो मैं उसका फायदा ले लूँ।
शृंगार के अनेकों अंगार इसकी जेब में ऐसे भरे हैं ।
प्रकृति के अनेकों रंग भी बहुधा फीके पड़ें हैं ।
कल्पना व्योम के इक छोर से धनुष संम खींच कर ।
पर तुणीर देखो तो जरा सब के सब खाली धरे हैं ।
बात कोरी कर्म थोथा , गप्प मारे भांड बनता ये प्रणेता ।
काम का नया काज का दुश्मन है पूरा डेढ़ मन अनाज का ।
था नहीं प्रारब्ध मेरा जन्म लेना इक नारी समान।
फिर भी अगर मौका मिले तो मैं उसका फायदा ले लूँ।
चाहता हूँ कुछ पलों के लिए मैं स्त्री का रूप ले लूँ।
बन के राधा श्याम की तेरे संग मैं भी फ़ाग खेलूं।
स्वार्थ की मारी है दुनिया और जगत सारा निरंकुश।
मैं उदधि संग हो सके गर बाल बन लूडो न खेलूं।
देव मेरे कल्पना है , मेरे हृदय की मात्र कोरी कल्पना।
हो सके तो आज मैं, हे प्रभु तुझ को आलिंगन में ले लूँ।