Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
8 Mar 2024 · 10 min read

स्वदेशी कुंडल ( राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ )

कुंडलिया छंद

देशी प्यारे भाइयो। हे भारत-संतान !
अपनी माता-भूमि का है कुछ तुमको ध्यान ?
है कुछ तुमको ध्यान! दशा है उसकी कैसी ?
शोभा देती नहीं किसी को निद्रा ऐसी ।
वाजिब है हे मित्र! तुम्हें भी दूरंदेशी,
सुन लो चारों ओर मचा है शोर ‘स्वदेशी’। (1)

परमेश्वर की भक्ति है मुख्य मनुज का धर्म,
राजभक्ति भी चाहिए सच्ची सहित सुकर्म ।
सच्ची सहित सुकर्म देश की भक्ति चाहिए?,
पूर्ण भक्ति के लिये पूर्ण आसक्ति चाहिए।
नहिं जो पूर्णासक्ति बृथा है शोर चढ़े स्वर,
है जो पूर्णसक्ति सहायक है परमेश्वर। (2)

सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान,
कर सकते हो देश का सभी तरह कल्यान ।
सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो,
करके कुछ उद्योग सोग सब हर सकते हो।
जो हो तुममें जान, आपदा भारी सारी,
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी। (3)

थाली हो जो सामने भोजन से संपन्न,
बिना हिलाए हाथ के जाय न मुख में अन्न।
जान न मुख में अन्न बिना पुरुषार्थ न कुछ हो,
बिना तजे कुछ स्वार्थ सिद्ध परमार्थ न कुछ हो ।
बरसो, गरजो नहीं, धीर की यही प्रणाली,
करो देश का कार्य छोड़कर परसी थाली । (4)

दायक सब आनंद का, सदा सहायक बन्धु,
धन भारत का क्या हुआ, हे करुणा के सिंधु !
हे करुणा के सिंधु, पुनः सो संपति दीजै,
देकर निधि सुखमूल, सुखी भारत को कीजै ।
भरिए भारत भवन भूरिधन, त्रिभुवन-नायक!
सकल अमंगलहरण, शरणवर, मंगलदायक । (5)

धन के होते सब मिले, बल, विद्या भरपूर,
धन से होते हैं सकल जग के संकट चूर।
जग के संकट चूर, यथा कोल्हू में घानी,
धन है जन का प्राण, वृक्ष को जैसे पानी।
हे त्रिभुवन के धनी ! परमधन निर्धन जन के !
है भारत अति दीन, लीन दुख में बिन धन के। (6)

यथा चंद बिन जामिनी भवन भामिनी हीन,
भारत लक्ष्मी बिन तथा, है सूना अति दीन।
है सूना अति दीन संपदा सुख से रीता,
है आश्चर्य अपार कि है वह कैसे जीता।
सुनो रमापति ! हाय ! प्रजा धनहीन रैन-दिन,
हैं अति व्याकुल बृन्द, कुमुद के यथा चंद्र बिन। (7)

नहीं धनुष का, चक्र का, नहीं शूल का काम,
नहीं गदा का काम है, नहीं विकट संग्राम ।
नहीं विकट संग्राम , निकट बैरी नहिं कोई,
है बस भारत-प्रजा,घोर निद्रा में सोई।
हरिए किसी प्रकार हरे हर ! आलस उसका,
वामहस्त का काम, काम नहि बान-धनुष का। (8)

‘पूरन’! भारततर्ष के, सेवाप्रेमी लोग,
कर सकते हैं दूर दुख ठानें यदि उद्योग।
ठानें यदि उद्योग कलह तजकर आपुस का,
नानाविध उपकार तभी कर डालें उसका।
करता है निर्देश जगत का स्वामी ‘पूरन’,
करें सूजन उद्योग, कामना होगी पूरन। (9)

कह दो भारतवर्ष के भक्तों से तुम आज,
अवसर यह अनुकूल है करने को शुभ काज।
करने को शुभ काज शीघ्र उद्यत हो जावें,
न्यायशील-नृप-विहित रीति का लाभ उठावें।
कर्म-विपाक-स्वरूप राजशासन है कह दो,
है श्री प्रभु का तुम्हें यही अनुशासन कह दो। (10)

हिलता-मिलता, नीति ले इंग्लिश जन के साथ,
करे यत्न तो हो सही, भारतवर्ष सनाथ।
भारतवर्ष सनाथ हुआ जानो फिर जानो,
यदि कुछ भी अनुकूल हवा का रुख पहचानो।
उसकी इच्छा बिना कहाँ यह अवसर मिलता,
पत्ता भी तो नहीं हुक्म बिन उसके हिलता। (11)

तन, मन, धन से देश का करें लोग उपकार,
विद्या, पौरुष नीति का कर पूरा व्यवहार ।
कर पूरा व्यवहार धर्म का काम बनावें,
अग्रगण्य जन विहित प्रथा को चित्त में लावें ।
पृथक् पृथक् निज स्वार्थ भुलावें सच्चेपन से,
देश-लाभ को अधिक जानकर तन-मन-धन से। (12)

सेवा तन से जानिए, हाथों उत्तम लेख,
कानों सुनना हित वचन, आंखों दुनिया देख।
आंखों दुनिया देख ऊँच अरु नीच परखना,
पैरों से कुछ भ्रमण चरण समथल पर रखना।
मुख से सुठ उपदेश पार हो जिसमें सेवा,
सज्जन ! है बस यही देश की तन से सेवा। (13)

मन की सेवा के सुनो, मुख्य चिह्न हैं चार-

1. देश-दशा का मनन शुभ 2. उन्नति-यत्र बिचार।
3. उन्नति-यत्र विचार सोचना नियम कार्य का,
4. कार्य-समय विश्वास, विदित जो धर्म आर्य का।
मिलती है इन गुणों सफलता रूपी मेवा,
करो देश के लिये समर्पित मन की सेवा । (14)

धन को सेवा जानिए सब सेवा का सार,
होता है तन, मन दिए इस, धन का संचार ।
इस धन का संचार धर्म ही के हित मानो,
बिना दान के सफल धनी-पद को मत जानो ।
पेट देश का भरो पेट का काट कलेवा,
ययाभक्ति दो दान बनै तब धन की सेवा। (15)

सुनो बंधुवर ! ‘पूर्ण’ का सुन करुणामय नाद,
इन वचनों से ईश ने सब हर लिया विषाद ।
सब हर लिया विषाद किया आश्वासन पूरा,
होगा पूरन काम नहीं जो यत्न अधूरा।
उसी सीख अनुसार लेखनी कर में लेकर,
करता हूं विस्तार-कथन, टुक सुनो बंधुवर ! (16)

भारत-तनु में हैं विविध प्रांत निवासी अंग:-
पंजाबी, सिंधी, सुजन, महाराष्ट्र, तैलंग ।
महाराष्ट्र, तैलंग, बंगदेशीय, विहारी,
हिन्दुस्तानी, महिद-जनवृन्द, बरारी।
गुजराती, उत्कली, आदि देशी-सेवा-रत,
सभी लोग हैं अंग बना है जिनसे भारत । (17)

ईसावादी, पारसी, सिक्ख यहूदी लोग,
मुसलमान, हिन्दी, यहाँ है सबका संयोग ।
है सबका संयोग, नाव पानी का जैसे,
हिलिए, मिलिए भाव बढ़ाकर मित्रों कैसे।
गुण उपकारी नहीं दूसरा एक दिली-सा,
हे भ्राता सब मनुज, दे गया सम्मति ईसा । (18)

सौदागर वर, बँकर, मालगुजार, वकील,
जिमींदार, देशाधिपति, प्रोफेसर शुभशील ।
प्रोफेसर शुभशील, एडिटर, मिल-अधिकारी,
मुंसिफ़, जज, डेपुटी, आदि नौकर सरकारी।
रहा खुलासा यही, किया सौ बार मसौदा,
बने स्वदेशी तभी होय जब सबको सौदा । (19)

पुर्जे किसी मशीन के हों कहने को साठ,
बिगड़े उनमें एक तो हो सब बाराबाट।
हो सब बाराबाट बन्द हो चलना कल का,
छोटा हो या बड़ा किसी को कहो न हलका ।
है यह देश मशीन, लोग सब दर्जे दर्जे,
चलें मेल के साथ उड़े क्यों पुर्जे-पुर्जे ? (20)

धर्म-सनातन-रत कहाँ बैठो हो तुम हाय ?
पूज्य सनातन देश का सोच समस्त विहाय ।
सोच समस्त विहाय धर्म का पालन भूले,
देश दशा को भूल, भुला किस्मत में फूले ?
यदि न देश में रही सुखद संपदा पुरातन,
सोचो, किस आधार रहेगा धर्म सनातन ? (21)

आर्यसमाजी ! आर्यवर्त आर्यदेश के काज,
निज प्रयत्न अर्पण करो, सार्थक करो समाज ।
सार्थक करो समाज, देश की दशा बनाओ,
‘दया’ युक्त ‘आनन्द’ सहित धीरता दिखाओ ।
अति हित का मैदान बीच दौड़ाओ बाजी,
हो तुम सच्चे तभी, मित्रगण ! आर्यसमाजी । (22)

दामनगीर निफाक है, हाय हिन्द! अफसोस,
बिगड़ रहा अखलाक है, वाय हिन्द ! अफ़सोस ।
वाय हिन्द ! अफ़सोस ! जमाना कैसा आया ?
जिसने करके सितम भाइयों को लड़वाया।
मुसलमान हिन्दुओ ! वही है कौमी दुश्मन,
जुदा-जुदा जो करे फाड़कर चोली-दामन। (23)

बरस कई सौ पेशतर की हक़ ने तहरीक,
दो भाई बिछुरे हुए हो जावे नजदीक ।
हो जावे नजदीक हिन्द में दोनों मिलकर,
लड़े भिड़े फिर एक हुए कर मेल बराबर।
यह दोनों का साथ रजाए रब से समझो,
इन दोनों को मिले हुए अब बरस कई सौ । (24)

बन्दे हो सब एक के, नहीं बहस दरकार,
है सब कौमों का वही खालिक औ कर्तार ।
खालिक और कर्तार वही मालिक परमेश्वर,
है जबान का भेद, नहीं मानी में अन्तर ।
हो उसके बरअक्स करो मत चर्चे गन्दे,
कह कर राम, ‘रहीम’ मेल रक्खो सब बन्दे । (25)

पानी पीना देश का, खाना देशी अन्न,
निर्मल देशी रुधिर से नस-नस हो संपन्न ।
नस-नस हो संपन्न तुम्हारी उसी रुधिर से,
हृदय, यकृत, सर्वांग, नखों तक लेकर शिर से ।
यदि न देशहित किया, कहेंगे सब ‘अभिमानी’
शुद्ध नहीं तब रक्त, नहीं तुझमें कुछ ‘पानी’ । ( 26)

सपना हो तो देश के हित ही का हो, मित्र !
गाना हो तो देश के हित का गीत पवित्र ।
हित का गीत पवित्र प्रेम-वानी से गाओ,
रोना हो तो देश-हेतु ही अश्रु बहाओ।
देश-देश ! हा देश ! समझ बेगाना अपना,
रहे झोपड़ी बीच महल का देखें सपना । (27)

भैंसी की जब मर गई पड़िया, चतुर अहीर,
कम्मल की पड़िया दिखा लगा काढ़ने छीर ।
लगा काढ़ने छीर, भैंस भैंसड़ बेचारी,
यही समझती रही यही पुत्री है प्यारी।
नहीं स्वदेशी बन्धु, बात यह ऐसी वैसी,
हो मानुष तुम सही किन्तु हो सोई भैंसी। (28)

खेती है इस देश में सब संपत की मूल,
कोहनूर इस कोश में है कपास के फूल।
हैं कपास के फूल सुगम सत् के रंगवाले,
रखते हैं अंग-लाज इन्हीं से गोरे-काले ।
अपनाओ तुम उसे, तुम्हारी मति जो चेती ।
हरी-भरी हो जाय अभी भारत की खेती। (29)

लीजै विमल कपास को उटवा चरखी-बीच,
धुनकाकर रहेंटे चढ़ा, तार महीने खींच ।
तार महीने खींच वस्त्र वर पहनो बुनकर,
दिया साधु का उदाहरण क्या प्रभु ने चुनकर ।
जग-स्वारथ के हेतु देह निज अर्पण कीजै,
प्रिय कपास से यहीं, मित्रगण, शिक्षा लीजै। (30)

चींटी, मक्खी शहद की सभी खोजकर अन्न,
करते हैं लघु जंतु तक, निज गृह को संपन्न ।
निज गृह को संपन्न करो स्वच्छंद मनुष्यो,
तजो-तजो आलस्य अरे मतिमन्द मनुष्यो !
चेत न अब तक हुआ मुसीबत इतनी चक्खी,
भारत की सन्तान ! बने हो चींटी, मक्खी ! (31)

कूकर भरते पेट हैं पर-चरणों पर लेट,
शूकर घूरों घूमकर भर लेते हैं पेट।
भर लेते हैं पेट सभी जिनके है काया,
पुरुषसिंह हैं वहीं भरे जो पेट पराया ।
ठहरो, भागो नहीं, स्वदेशी चर्चा छूकर,
करो ‘पूर्ण’ उद्योग, बनो मत शूकर, कूकर। (32)

देशी उन्नति ही करे भारत का उद्धार,
देशी उन्नति से बने, शक्तिमती सरकार ।
शक्तिमती सरकार-रूप-शाखा हो जावे,
प्रजास्वरूपी मूल बली यदि होने पावे ।
बिलग न राजा प्रजा, करो टुक दूरंदेशी,
कहो स्वदेशी जयति, स्वदेशी जयति स्वदेशी । (33)

गाढ़ा, झीना जो मिले उसकी ही पोशाक,
कीजै अंगीकार तो रहे देश की नाक ।
रहे देश की नाक स्वदेशी कपड़े पहने,
हैं ऐसे ही लोग देश के सच्चे गहने ।
जिन्हें नहीं दरकार चिकन योरप का काढ़ा,
तन ढकने से काम गजी होवे या गाढ़ा । (34)

खारा अपना जल पियो मधुर पराया त्याग,
सीठे को मीठा करे ‘पूर्ण’ देश-अनुराग।
‘पूर्ण’ देश-अनुराग, सकल सज्जनो निबाहो,
है जो ह्यां पर प्राप्त अधिक उससे मत चाहो ।
बिना विदेशी वस्त्र नहीं क्या गुजर तुम्हारा ?
काफी है जो मिले होय गाढ़ा या खारा । (35)

संगी, साटन, गुलबदन, जाली बूटेदार,
ढाका, पाटन, डोरिया, चिकन अनेक प्रकार ।
चिकन अनेक प्रकार, नैनमुख, मलमल आला,
फर्द, टूस, कमखाब अमीरी कीमतवाला।
कोसा कंचनवरन, अमौवा मानारंगी,
पहनो ह्यां के बने, बनो भारत के संगी। (36)

धोती सूती, रेशमी, खन, साड़ी, मंडील,
बनत, कामदानी, सरज, हे समर्थ शुभशील ।
है समर्थ शुभशील ! जरी से कलित दोशाले,
पहनो वसन अमोल, सितारे, सलमेवाले ।
सस्ती, महंगी वस्तु देश में है सब होती,
थैली की या एक मोहर की पहनो धोती। (37)

कपड़े भारतवर्ष के गए बहुत परदेश,
तब समान उनके वहां बनने लगे अशेष।
बनने लगे अशेष देखने में भड़कीले,
सस्ते अरु कमजोर मगर सुन्दर, चमकीले ।
खपने लगे तमाम वही सब चिकने-चुपड़े,
है ह्यां की ही नकल सकल परदेशी कपड़े । (38)

मारा है दारिद्र का भरत खंड आधीन,
कारीगर बिन जीविका है दुःखित अति दीन ।
है दुःखित अति दीन वस्त्र के बुनने वाले,
धीरे-धीरे हुनर समय के हुआ हवाले।
भरा देश में हाय निकम्मा कपड़ा सारा,
तुमने ही कोरियों, जुलाहों को बस मारा। (39)

बाकी है जो कुछ हुनर है वह भी म्रियमान,
जीवदान कर्तव्य है हे भारत-संतान !
हे भारत-सन्तान ! दया करके यश लेना,
है बेबस बीमार दवा वाजिब है देना,
नहीं देर की जगह जियादा है नाचाकी ।
करो रहम की नजर जान अब भी है बाकी । (40)

लत्ता, गूदड़ जगत का जीर्ण और अपवित्र,
उससे भी हो धन खड़ा, है व्यापार विचित्र ।
है व्यापार विचित्र उसे घो खूंद खांदकर,
सूत कात बुन थान, मढ़ें मूढ़ों के सर पर ।
खोया सब हां रही बुद्धि इतनी अलबत्ता,
देकर चांदी खरी मोल लेते हो लत्ता। (41)

दे चांदी लो चीथड़े, है अद्भुत व्यवहार,
भारतवासीगण ! कहां सीखे तुम व्यापार ?
सीखे तुम व्यापार कहां यह सत्यानासी,
जिससे तुमको मिली आज निर्धनता खासी ।
गले पसीना लगे मित्र यह नहीं वसन है,
पूरे बनिए बने द्रव्य गूदड़ पर दै-दै । (42)

दौड़ी भारत से सुमति जा छाई परदेश,
उसके रुचिर प्रकाश का यां तक हुआ प्रवेश ।
यां तक हुआ प्रवेश गई कुछ नींद हमारी,
मचा स्वदेशी शोर सुजन-मुदकारी भारी।
पर हीरे की डींग बुरी है पाकर कौड़ी,
मसल न होवे कहीं वही ‘काता ले दौड़ी’। (43)

चूड़ी चमकीली विशद परदेशीय विचार,
बनिताओं ने त्याग दी किया बड़ा उपकार ।
किया बड़ा उपकार यद्यपि है अबला नारी,
अब देखें कुछ पुरुष वर्ग करतूत तुम्हारी।
सुनो ! तुम्हारी अगर प्रतिज्ञा रही अधूड़ी,
यही कहेंगे लोग पहनकर बैठो चूड़ी। (44)

चीनी ऊपर चमचमी भीतर अति अपवित्र,
करते हो व्यवहार तुम, है यह बात विचित्र ।
है यह बात विचित्र, अरे, निज धर्म बचाओ,
चौपायों का रुधिर, अस्थि अब अधिक न खाओ ।
है यह पक्की बात बड़ों की छानी-बीनी,
करो भूल स्वीकार करो मत नुक्ताचीनी । (45)

मिट्टी, पत्थर, रेणुका, रेहू, सींक, पयाल,
हैं चीजें सब काम की पत्र, फूल, फल, छाल।
पत्र, फूल, फल, छाल, जटा, जड़, घास, विहंगम,
सीपी, हड्डी, सींग, बाल, रद कोसा, रेशम ।
है जितनी ह्यां उपज जवाहर हो या गिट्टी,
है सब धन का मूल बुद्धि जो होय न मिट्टी। (46)

छाता, कागज, निब, नमक, कांच, काठ की चीज,
चुरट, खिलौना, ब्रश, मसी, मोजे, जूट, कमीज ।
मोजे, बूट, कमीज, बटन, टोपियां, पियाले,
बरतन, जेवर, घड़ी, छड़ी, तसवीरें ताले।
करो स्वदेशी ग्रहण नहीं तो तोड़ो नाता,
नीची गर्दन करो तानकर चलो न छाता । (47)

दियासलाई, ऐनकें, बाजे, मोटरकार,
वाइसिकिल, करघे, दवा, रेल, तार, हथियार ।
रेल, तार, हथियार विविध बिजली के आले,
धूमपोत, हल, पम्प, अमित औजार, मसाले ।
बनें यहां और खपें, नहीं तो सुन लो भाई,
देशीपन को अभी लगा दो दियासलाई। (48)

कल है बल उद्योग का कल उन्नति कि मूल,
कल की महिमा भूलना है अति भारी भूल ।
है अति भारी भूल अगर कोरी कलकल है,
दूरदर्शिता नहीं, इसी में सारा बल है।
कल से सकल विदेश सबल, निष्कल निर्बल है,
भरतखंड ! कल बिना तुझे, हा, कैसे कल है।(49)

जागो जागो बन्धुगण आलस सकल विहाय,
देश हेत अर्पण करो मन, वाणी अरु काय।
मन, वाणी अरु काय देश-सेवा को जानो,
जीवन, धन, यश मान उसी के हित सब मानो ।
वीरजनों ! अब खेत छोड़ मत पीछे भागो,
सोतों को दो चेत करो ध्वनि ‘जागो, जागो’ । (50)

शिक्षा ऊंचे वर्ग की पावें ह्यां के लोग,
तभी यहां से दूर हो अन्धकार का रोग।
अन्धकार का रोग करे ह्यां से मुंह काला,
तभी, करे जब पूर्ण कला-दिनकर उजियाला ।
बिना कला के तुम्हें मिले नहि मांगे भिक्षा,
कहा इसी से करो वेग सम्पादन शिक्षा । (51)

वन्दे-वन्दे मातरम् सदा पूर्ण विनयेन,
श्रीदेवी परिवन्दिता, या निज पुत्र-जनेन ।
या निज-पुत्र-जनेन पूजिता मान्याऽनूपा,
या घृत-भारतवर्ष देश-वसुमती-स्वरूपा ।
तामहमुत्साहेन शुभे समये स्वच्छन्दे,
वन्दे जनहितकारी मातरम् वन्दे-वन्दे । (52)
संकलन
(डाॅ बिपिन पाण्डेय)
राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ रचनावली से साभार

1 Like · 272 Views

You may also like these posts

वतन-ए-इश्क़
वतन-ए-इश्क़
Neelam Sharma
I Am Always In Search Of The “Why”?
I Am Always In Search Of The “Why”?
Manisha Manjari
सत्य का अन्वेषक
सत्य का अन्वेषक
PRATIBHA ARYA (प्रतिभा आर्य )
संभलना खुद ही पड़ता है....
संभलना खुद ही पड़ता है....
Rati Raj
नया साल
नया साल
अरशद रसूल बदायूंनी
कुछ ना लाया
कुछ ना लाया
भरत कुमार सोलंकी
मैं टीम इंडिया - क्यों एक अभिशापित कर्ण हूँ मैं!
मैं टीम इंडिया - क्यों एक अभिशापित कर्ण हूँ मैं!
Pradeep Shoree
एक मधुर संवाद से,
एक मधुर संवाद से,
sushil sarna
कौशल
कौशल
Dinesh Kumar Gangwar
* वक्त  ही वक्त  तन में रक्त था *
* वक्त ही वक्त तन में रक्त था *
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
* चली रे चली *
* चली रे चली *
DR ARUN KUMAR SHASTRI
भावो का भूखा
भावो का भूखा
ललकार भारद्वाज
बढ़ने वाला हर पत्ता आपको बताएगा
बढ़ने वाला हर पत्ता आपको बताएगा
शेखर सिंह
There is no rain
There is no rain
Otteri Selvakumar
#लघुकथा
#लघुकथा
*प्रणय*
श्री कृष्ण
श्री कृष्ण
Vandana Namdev
- तुम्हारी दिलकश अदा पर में हुआ फिदा -
- तुम्हारी दिलकश अदा पर में हुआ फिदा -
bharat gehlot
सारे इलज़ाम इसके माथे पर,
सारे इलज़ाम इसके माथे पर,
Dr fauzia Naseem shad
प्रार्थना
प्रार्थना
Shally Vij
" तय कर लो "
Dr. Kishan tandon kranti
साथ
साथ
Neeraj Agarwal
“लिखने से कतराने लगा हूँ”
“लिखने से कतराने लगा हूँ”
DrLakshman Jha Parimal
ग़ज़ल _ दिलकश है मेरा भारत, गुलशन है मेरा भारत ,
ग़ज़ल _ दिलकश है मेरा भारत, गुलशन है मेरा भारत ,
Neelofar Khan
चाँद दूज का....
चाँद दूज का....
डॉ.सीमा अग्रवाल
दूसरे में गलती ढूंढने के बजाय हमें स्वयं के अंदर खोज करना चा
दूसरे में गलती ढूंढने के बजाय हमें स्वयं के अंदर खोज करना चा
Ravikesh Jha
पलायन (जर्जर मकानों की व्यथा)
पलायन (जर्जर मकानों की व्यथा)
डॉ नवीन जोशी 'नवल'
"कहने को हैरत-अंगेज के अलावा कुछ नहीं है ll
पूर्वार्थ
एकांत में रहता हूँ बेशक
एकांत में रहता हूँ बेशक
Dr. Ramesh Kumar Nirmesh
2510.पूर्णिका
2510.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
बातें सब की
बातें सब की
हिमांशु Kulshrestha
Loading...