स्मृति शेष
वो पके फल सी थीं।कभी भी जीवन रूपी वृक्ष से टपकने को थीं।भला कोई अमरत्व का पान कर इस दुनिया में थोड़े ही आता है।अतः उनका जाना तो तय था सो वह चलीं गई।दूर बहुत दूर,जहाँ से कोई लौट कर वापस नहीं आता है।हो सकता है उनका जाना किसी को तसल्ली दे गया हो,किसी ने राहत की साँस ली हो,किसी की परेशानियों का अन्त हो गया हो।क्या वाकई?क्या इतनी ही उनकी महत्ता थी?
आज सरस्वती पूजा है।सोच रहीं हूँ क्या-क्या बनाऊं।पति से पूछा-“अजी खाने में क्या बनाऊँ”?
” अरे,भूल गई क्या,आज के दिन अम्मा दालभरी पूरियाँ,खीर-पूआ और चने का हलुवा बनाया करती थीं ।तुम भी वही बनाओ न”।
बड़े शौक से मैंने सारे व्यंजन बनाए।
अम्मा को पढ़ने -लिखने का बहुत शौक था।उनके जमाने में लड़कियाँ कहाँ विद्यालय जाती थीं,सो वो भी नहीं जा पाईं।भाइयों की किताबों से,उनकी मदद से पढ़ना-लिखना सीख गईं।जीवन भर धर्मग्रंथ तथा अन्य किताबें पढ़ती रहीं।माँ शारदे का मंत्र ,स्त्रोत ,भजन और आरती उन्हें कंठस्थ था।
आज महसूस होता है वह एक महिला नहीं एक परंपरा थी,एक युग के संस्कृति की,रीति रिवाजों की,पीढ़ियों की दास्तान थी।
क्या उनके जाने से एक विशाल वृक्ष की छाया से महरूम हो जाना नहीं है?
क्या मेरी बातों से आप भी सहमत है?