‘स्त्री-पुरुष’ अंश जग विधान के दोनों
ये नजर स्त्री जाति को, बुरी लगी है राम
तन के भक्त कलियुग में, बढ़ रहे सुबह शाम।।1।।
हवस वासना दृष्टि से, देखना हुआ आम
माँ की ममता प्रेम का, आज लगा है दाम।।2।।
बलात्कार अविरत बढा, बिन भय यौनाचार,
मौत निकट पर काम की, अभी ना हुई हार।। 3।।
दिवाने बढे देह के, बदनाम हुआ प्यार
कहाँ बचा ये प्रेम है, अब तो है व्यापार।। 4।।
आरोपी कहलाय वो, जो तन लुट ले जाय,
घूर घूर कर छू चले, उसे क्या कहा जाय।। 5।।
हिंसा कहीं दहेज में, हरपल शोषण जहाँ,
घर कहो या बाहर हो, सुरक्षित स्त्री कहाँ।। 6।।
बैठा दैत्य दहेज का, फैलाता है जाल
गृहलक्ष्मी को मार के, कर देता कंगाल।। 7।।
गृहणी घर सजाकर के, बना देत उद्यान,
माँग दहेज दानव वो, छीन लेत मुस्कान।। 8।।
स्त्री अंग क्या भोग है, या प्रयोग है कोय?
सृष्टि सृजन क्रम चले, ऐसा विधान होय।। 9।।
नारी हो या पुरुष हो, माने उसे समान,
अंश सब जग विधान के, फिर काहे अभिमान।। 10।।
– गौरव उनियाल ‘नादान’
देवभूमि उत्तराखंड