स्त्री कुटिल या जटिल?
आप मेरी बात से सहमत हो या नहीं हो इस बात का मेरे संग्रहित तथ्यों पर असर नहीं पड़ता। यह रचना मेरी गहन चिंतन का एक परिणाम है । मैंने स्वयं को इस निष्कर्ष पर लाया है और अपनी उसी सोच को आपके समक्ष रखने का दुस्साहस कर रही हूं और आपकी प्रतिक्रिया मेरे पक्ष में होगी इसकी मैं कोई अपेक्षा नहीं रखती।
स्त्री अबला प्रतीत हो या दुखियारी , किंतु यह सब उसी का रचा हुआ खेल है। दुनिया के तमाम अपराध दुष्कर्म पुरुषों द्वारा किए जाते हैं किंतु कभी यह सोचा है कि वह कहां से रचे जाते हैं? नहीं ना ! क्योंकि नारियों ने पुरूषों की सोच पर भी काबू कर रखा है और पुरुष तो यूं ही शेर बने फिरते हैं ,अहंकार के मद में चूर रहते हैं वे यह सोचते हैं कि “सत्ता तो उन्ही के हाथ में हैं और नारी तो महज एक कठपुतली है” किंतु होता तो ठीक इसके विपरीत है, और पुरुषों का यह भ्रम उनके आजीवन काल तक चलता ही रहता है । रचनाकार तो कोई और है पुरुष तो सिर्फ और सिर्फ एक साधारण सी डोर है। अत्याचारी दुष्कर्मी पापी यह सब कह कर हम पुरुषों को कटघरे में डलवा देते हैं क्या कभी सोचा है कि वे किस गोद में पलते हैं? किस सोच से पलते हैं? नहीं ना ! सोचेंगे भी कैसे? यह सोच भी तो हम नारियों द्वारा ही गढ़ी गई है । दूध पिला कर अपना बेटों के रक्त में धीरे-धीरे जहर घोला जाता है , यह कहकर कि औरतों को काबू में रखना, उन्हें ज्यादा सिर पर ना चढ़ाना वरना यह औरतें बहक जाती है । नारी अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी पुरुषों का शोषण करती आई है और इस खेल की रचना वह अपने घर से ही शुरु कर देती है। अपनी बेटी को चूल्हा चौका सौंपकर बेटे को सिखाती है , “जा मेरे शेर बाहर जा, घर तो औरतें संभाला करती है यह सिर्फ औरतों के काम है। यहीं से स्त्री की कुटिल राजनीति का खेल शुरू हो जाता है। वह ऐसे बेटे की रचना करने में जुट जाती है जो उसके खिलाफ कुछ सुन नहीं सकता। अपनी मां को वह भगवान समझने लगता है, सामाजिक परंपरानुसार जब उसका बेटा यौवन अवस्था में पैर रखता है तब उसका विवाह संपन्न करा दिया जाता है । अब देखना यह है कि मां ने अपने शासन तंत्र को चलाने के लिए जिस मोहरे का निर्माण किया था क्या अब वह सही से कार्यभार संभाल लेगा? या फिर वह पत्नी के मोह में पथभ्रष्ट हो जाएगा? परीक्षा की घड़ी आ गई है।
विवाह के उपरांत जब बहू घर आती है तब अपने प्रतिद्वंदी को अपने समक्ष देख मां की सत्ता डगमगा जाती है । मां के द्वारा निर्माण किए गए आदर्श बेटे को अब आदर्श पति भी तो बनना है और एक औरत का एक औरत के साथ युद्ध होना है । सत्ता पर आधिपत्य के लिए एक औरत को दूसरी औरत के समक्ष खड़ा होना है । इन दोनों के बीच में फंसे पुरुष का शोषण तो तय है। पुरुष को उसके मर्दानगी का हवाला देकर मां कहती है बेटा स्त्रियों को काबू में रखना चाहिए इनको ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए । मरती है तो मरे, लड़ती है तो लड़े, एक जायेगी दूसरी आयेगी। इनके मायाजाल में ना फसना। यही शिक्षा वह हर पल देती है और स्त्री को काबू करने के लिए कहती है । आज अगर उसका बेटा समाज में एक रेपिस्ट भी बनता है तो कहीं ना कहीं यह सोच भी वह घर से ही बुनता है । आखिर स्त्री है क्या? मां ने कहा था “उन पर काबू रखना चाहिए”। जो बेटा हर पल अपनी मां को अपने पिता द्वारा तिरस्कृत होते हुए देखता है और उस तिरस्कार के बाद भी मां के अंदर स्त्री जाति के प्रति माया ना देखकर निष्ठुरता देखता है तो वह बेटा, अर्थात वह भावी पुरुष समझ जाता है कि स्त्री और पशु में कोई अंतर नहीं है। स्त्री तो बस पुरुषों के द्वारा तिरस्कृत किए जाने वाली वस्तु है जिसे व्यवहार करो और फिर मन चाहे तो तिरस्कार करो।
दोष उस पुरुष का तो कतई नहीं है, उसकी यह मानसिकता तो गढ़ी गई है, किंतु युद्ध होना अभी बाकी है एक स्त्री मां के रूप में और एक स्त्री पत्नी के रूप में देखना तो यह है कि इन दोनों नारियों में कौन किस पर भारी पड़ता है ।
यौवन के मद में चूर स्त्री के सामने मां की ममता आखिर कब तक? मुंगेरीलाल के हसीन सपने आखिर कब तक ? पुरुष जब वासना से लिप्त अपनी पत्नी के पास जाता है, लोहा गरम देखकर स्त्री अपना दांव चलाती है। अब पाशा पलट चुका है पत्नी के वश में बेटा मां को भी अपशब्द कह देता है, तब मां के आंखो के सामने उसका बनाया घरौंदा धीरे-धीरे टूटने लगता है। तब मां को ऐसा लगता है मानो जीवन भर का संचित धन जैसे किसी ने लूट लिया हो। शुरुआत यहीं से होती है, मां के पतन की और पत्नी के उत्थान की। इस द्वंद से पुरुष कभी मुक्त नहीं हो पाए और वह हमेशा एक कठपुतली की तरह एक स्त्री से दूसरी स्त्री के बीच में संघर्ष करते रहे , और दोषी भी वही साबित होते गए। पुरुष के शारीरिक बल का उपयोग नारियां अपने प्रतिशोध और अहम की तृप्ति के लिए करती हैं,
अब आप ही कहो क्या स्त्री दुखियारी और अबला नारी है? मैथिलीशरण गुप्त जी ने तो कहा था- “हाय! अबला तेरी यही कहानी है ,आंचल में है दूध आंखों में पानी” उस समय राष्ट्रकवि गुप्त जी को स्त्रियों की दशा पर दया आ गई होगी क्योंकि कहीं ना कहीं वह भी तो एक स्त्री द्वारा ही गढ़े गए हैं। नारियों को अबला और असहाय रूप में देखा जाता है किंतु जब गहराई से चिंतन करके देखा जाय तब यह स्पष्ट होता है कि यह अबला और दुखियारी बनने का महज एक ढोंग ही है। यदि गुप्तजी ने आदर्श का चश्मा हटाया होता और गहराई से चिंतन किया होता तो आज के वर्तमान परिस्थिति में गुप्त जी यही कहते “हाय ! अबला तेरी यही कहानी , तेरा रचा खेल अब तेरे ही सिर बिसानी”
अब समय है नई सोच के साथ विश्लेषण करके नए पुरुष समाज को गढ़ने का, और यह दायित्व भी किसी और का नहीं — नारी का ही है..
धन्यवाद🙏
ज्योति…✍️