सोच
सोच
चला घेरने जो स्वयं घिर गया।
चला मारने जो स्वयं मर गया।
मिला कर्म का फल बहुत दुखनुमा।
ग़ज़ब रो रहा आज सब हर गया।
बुरी सोच में नित बुराई छिपी।
घृणित भाव में है लडाई छिपी।
मलिन मन जहां है वहीं गंदगी।
सदा दुष्टता की कमाई छिपी।
जहां प्यार बहता वहीं जिंदगी।
करो यार प्रिय की सदा बंदगी।
न भूलो न छोड़ो प्रिये पास रख।
निकालो हृदय से सतत गंदगी।
करो तृप्त प्रिय को सदा रे सखी।
दिलेरी दिखाओ सदा प्रिय सखी।
न मोड़ो कभी मुँह हृदय में बसो।
चली आ चली आ चली आ सखी।
काव्य रत्न डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।