सोचूं अब चोर ही बन जाऊँ…….
सोचूं अब चोर ही बन जाऊँ…….
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डालूं डाका किसी बैंक
शाखा पर और निकाल लाऊँ
वो सब पैसे दे दूँ उन्हें जो
लाचार हैं बेबस हैं
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चले जाऊँ चुपके से किसी
बड़े से दूकान पर तोड़
दूँ ताला उठा लाऊँ उन सभी कपड़ों को
और बाँट दूँ उन्हें मज़बूर हैं जो
रोड पर अपनी रात बिताने को
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बना लूँ गैंग कोई अपनी भी
तमंचे भी साथ हो और
लगा दूँ कनपट्टी पर
उस मंत्री के और छुड़ा लाऊँ
उस गरीब की कब्जाई जमीन
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सोचूं अब चोर ही बन जाऊँ…….
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रात का समय हो और
अंधेरा घना हो चला जाऊँ
किसी गोदाम में…
उठा लाऊँ वो ढेरों अनाज
जो रखे हैं जो दाम बढ़ाने को
और दे दूँ ज़रूरतमंदों को
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सोचूं तोड़ दूँ वो कानून
और घोप दूँ चाकू उस
बलात्कारी पर, ले जाऊँ
ईंधन कोई और लगा दूँ
आग उस कोर्ट पर जो सजा
-ए मौत न देता हो
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मन करता है बना लूँ डेरा
उस प्रख्यात के घर के सामने
मौका देखकर उड़ा दूँ उसे
जो राष्ट्रहित में
अपमानजनक कहता रहा हो
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सोचूं अब चोर ही बन जाऊँ…….
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_____________________________________ बृज