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2 Jan 2023 · 1 min read

सृष्टि का सौंदर्य

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डरना कैसा प्रेम प्रणय से!
झुठलाना क्यों अन्तर की एक पूत भावना?
मुंदना कैसा आँख विनय से!
उलझाना क्यों? जो प्रत्युत्तर,वही चाहना।

चाह नहीं यह सुंदरता का,रूप-देह का,
पूजा का अहसास यही है।
रक्त न केवल,न ही स्नायु बस।
जीवन का हर सांस यही है।

दो नयनों का मात्र नहीं चाक्षुष-सम्मोहन।
मुग्धा का दैहिक आकर्षण।
जलते यौवन का पागलपन नहीं समझना।
नहीं समझना मात्र इसे मेरा भौतिक मन।

विश्व बटा हर भौतिकता का शेष यही है।
कुछ अशेष यदि विश्व,व्योम में वेश यही है।

इस संगम पर प्रश्नचिन्ह मत खड़ा करो हे!
पावन मन के कंपित सुर हैं।
जीवन जितना सच जीवन में,इस तन-मन में।
जितना सच मैं, उतने सच मेरे ये उर हैं।

तन से तन का,मन से मन का मधुर मिलन हो।
उर से उर का,डरना कैसा?
पौरुष ने यदि नारीत्व ने यदि किया समर्पण
अपना तन,मन। लज्जा कैसी?मरना कैसा?

शैशव के शीतल सूरज में,यौवन के इस तेज प्रहर में
आत्मसात हो जाना नर का इस नारी में घटना कैसी!
परमपिता के परम पुण्य का प्रतिफल हो या नहीं रहे यह।
नर का नारी में मदमर्दन,अहम् विसर्जन घटना कैसी?

ढूंढ देख लो, सृष्टि का सौंदर्य यही है।
इतना होकर भी केवल आश्चर्य यही है।
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Language: Hindi
127 Views
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