सृजन
सृजन हो,निशा हो
निशा हो,सृजन हो
सृजन ही निशा हो
निशा ही सृजन हो
उषा पथ-सृजन को
निहारे,बिलोके
मैं कैसे निशा को
मिटाऊँ ये सोचे
सृजन पथ ये मेरा
हुआ ना तो क्या हो
निशा ही अगोरे,
निशा ही सहेजे
सृजन सिर्फ उसका
ही धन नहीं है
मुझे भी है साहस
मैं उसको सँभालूँ
सृजन के नये शब्द
को मैं सजाऊँ
अलंकृत करूँ मैं
नये शब्द गढ़-गढ़
लक्षणा और व्यंजना
के छौंके लगाऊँ
मन को सजाऊँ
हृदय को संवारूं
सृजन पथ जटिल है
जटिल ही रहेगा
उषा में सृजन हो
निशा में सृजन हो
सृजन तो सृजन है
सृजन ही रहेगा
सृजन ही रहेगा
सृजन तो सृजन है
तुम्हारा,हमारा।
–अनिल कुमार मिश्र,प्रकाशित