सृजनकरिता
डा . अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक- अरुण अतृप्त
* सृजनकरिता *
मेरी और उसकी पटती नही थी वो ठहरी सुन्दर स्मार्ट अमीर बातुनी और मैं उसके एक दम विपरीत | चुपचाप नोन स्मार्ट मिडिल क्लास | लेकिन फिर भी किसी न किसी बहाने से वो मुझे कोंचती रेह्ती थी , ये बहुत अचम्भे की बात् थी , एक दिन मैने पूंछ ही लिया , जब हम सायरा लेक पर युं ही टहलते टहलते पहुच गए उस रोज भीड कम थी इस से पहले मैं उस् से कुछ पूंछ्ता वो ही बोल बैठी – हेल्लो अरुण – मैं तुम्हें कैसी लगती हुँ – मैं सकपका गया उसके चेहरे हाव भाव को देख उसका मस्तक उसकी चमक देख उपर वाले ने उसको फुर्सत से बनाया था सच् में वो किसी राजकुमारी से कम नही थी | अपनी किस्मत को मैं सराहता था कि वो मेरी गर्ल फ्रेन्ड है लेकिन फिर अपने को देख मन सिकूड जाता है रह रह के | उसने मुझे चुप देख फिर टोंका हेल्लो क्या हुआ क्या मैं तुम्हें अच्छी नही लगती – मैं एक दम से सम्हला फिर बोला सच् सुनोगी – बोली अरे तो क्या मैं झूठ सुन ने को यहाँ हुँ एक दम साफ बोलना – बोलो – तो सुनो मैं बोला – तुम इतनी अच्छी हो के कुछ कहना मुश्किल है मैं हमेशा अपनी किस्मत को देख देख उपर वाले को धन्य धन्य कह्ता रह्ता हुँ – लेकिन – लेकिन क्या वो बोली बोलो बोलो यही ना कि तुम – मेरे लायक नही यही ना मैं बोला हाँ यही सच् है – इतना सुन कर वो एकदम से मेरे गले लग गई और मेरे होठों पर अपने होठ रख दिए – मैं किम्कर्तव्य विमूड़ हो उसे देखता रहा , बोली अब तो मैं झूठी हो गई तेरे नाम से तेरे जैसी – एब हम दोनो एक हो गए ठीक – मैं प्रभु की सृजन्कारिता को सराहता रहा और दूर कहीं सूरज अपनी दैनिक यात्रा पूरी कर – पश्चिम की और प्रस्थान हेतु चलायमान हो रहा था मुस्कुराता हुआ — अपनी रश्मियाँ हम दोनो के मस्तक पर शोभित करते हुए अनन्त में लीन हो गया |