सूर्य सष्ठी- छट
याद आ रहा मुझे आज भी
जब माँ स्नान किया करती थी,
फिर लोटे में जल लेकर वह
नित्य सूर्य को जल देती थी।
वैसे ही सूर्य अस्त होने पर
जब शाम सरोतर ढलती थी,
रक्ताभ लालिमा मध्य नित्य
वह तुलसी दीपक करती थी।
प्रातः बिना अर्घ्य दिये सूर्य को
अन्न ग्रहण नहि करती थी,
शाम दीपदान के बाद ही
वह शायद कुछ खाती थी।
इस तरह वर्षभर पूरे वह
सूर्योपासना करती रहती,
श्रद्धा और समर्पण से वह
अपना जीवन जीती रहती।
छट मैया प्रतीक है जानो
सृष्टि के इस छटे भाग की,
चार दिनों की आराधना से
हर पूरी इच्छा जन-जन की।
नवजागरण की आंधी में
इन्हें और विस्तार मिला,
दूर रोज रोज के झंझट से
सुबह शाम का अर्ध्य दिया।
बाजारवाद से दूर बने हम
अपनी संस्कृति से जुड़े रहे,
सूर्योपासना नित्य करे हम
निर्मेष सदा निरोग रहे हम।
निर्मेष