“सूर्य — जो अस्त ही नहीं होता उसका उदय कैसे संभव है” ! .
यह सिर्फ एक धारणा है के “सूर्य का उदय होता है”, यथार्थ और मरीचिका में शायद यही एक अंतर है , “जो अस्त ही नहीं होता उसका उदय कैसे संभव है” ! .
यह सिर्फ मनः स्थिति हैजो हम सत्य को “जानते” हुए भी “स्वीकार” नहीं करते हैं , और वोही “देखना” ; “समझना” और “मानना” चाहते हैं जो हमारे मन को अच्छा लगता है ! या यूँ भी कह सकते हैं के हम अपने आप को ही, कुछ प्रहरों के लिए ही बहला लेते हैं एक लुभावने से भ्रम के जाल में, जो हम खुद अपनी ही मर्जी से बुनते हैं ! और ऐसा भी नहीं के हम खुद भी इस भ्रम जाल ना उलझे हों
परन्तु इस “समय रूपी शिक्षक” के हम आभारी हैं, जिसने “अनुभव की कक्षा” में धीरता का पाठ धीरे – धीरे सिखलाया , और इस सत्य से परिचय कराया, के “धैर्य” ही सबसे “सबल” है जो कठिन से कठिन परिस्थति में भी यह “संबल” देता है के “संयम से उस समय” तक की प्रतीक्षा करें की जब सूर्य अन्धकार को चीर पुनः जीवन को प्रकाशमान कर दे ! और यह “प्रतीक्षा ही इस कलियुग की साधना या तपस्या” है