सूरज मुझे जगाता, चांद मुझे सुलाता
रचना (3)
सूरज मुझे जगाता
चाँद मुझे सुलाता
उषा की पहली किरणें
पलकों को हैं सहलाती
अँगड़ाई लूँ, वक़्त नहीं
उनींदी ही मैं उठ जाती
मुन्नू को लिहाफ़ उड़ाकर
खिड़की पे पर्दा सरकाती
ख़लल, पति को नापसंद
धीरे से किवाड़ अटकाती
मन में प्रभु को याद करती
फ़िर चाय अपनी चढ़ाती
यही पहर ही मेरा अपना
अख़बारों पे नज़र घुमाती
कोई अनपढ़ ही नहीं कह दे
ख़बरों की खबर भी मैं रखती
हाथों की कसरत भी चलती
मैथी कोथमीर की सफ़ाई में
झटपट फ़िर नहाकर आती
मुन्नू व पति की हाज़िरी में
फ़टाफ़ट दो टिफ़िन लगाती
तौलिया भी हाथों में थमाती
ये बरौनी व दूधवाले का भी
हाँ भई,यही मुहरत होता है
पोछ पसीना दौड़ मैं लगाती
मुन्नू का तांगा जो आया है
हाय-बाय करूँ कब कैसे ?
बिगड़ जाते हैं तेवर पति के
डिनर…पसंद का बनाना है
पूरे घर को रोज सजाना है
हाँ,ख़ुद नहीं सजू सँवरूँ तो
बेढंगी सब कहते हैं मुझको
भ्रमित होके समझ नहीं पाती
किसको कैसे संतुष्ट करूँ मैं
अरे! माँ-बाबा भी नाराज़
सखियाँ भी हैं रूठी-रूठी
संदूक में बंद है मेरी डायरी
स्याही भी कलम की सूखी
मुन्नू ने कर दिए हैं गड़मगप
वे सारे सुहाने रंग और कूची
अवरगंडी की मेरी साड़ियां
कसीदाकारी के बिन हैं सूनी
इन्हीं उधेड़बुनों में चाँद आता
थकी-हारी निढाल हो जाती
अगली सुबह के सपने लिए
नैनन में निंदिया समा जाती
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित