सूखता पारिजात
सूखता पारिजात
चिरपरिचित द्वारिकाधीश
का धाम
कालिंदी कूल व सुवासित
कदंब डार
संध्या वंदन व एक ढलती
हुई शाम
कृष्ण की आराधना व स्वर
राम-राम
समाप्त कर दिन के सारे
अपने काम
एकाग्र स्व में संकुचित बस
एक नाम।
मैं कही भी रहूँ, मेरी नित्य की
दिनचर्या
समाप्त कर अपनी समस्त की
परिचर्चा
तेरी आराधना में तल्लीन भूल
सब खर्चा
मैं पाऊंगा तुम्हे या विस्मृत हर
हाल की चर्चा।
पर अबाध चलती रहेगी आज
मनसचर्चा।
सत्य, मैं ईश्वर की बात नही
कर रहा
तेरी याद में अपने शेष दिन
बिता रहा
अब तक कि उपलब्धियों को
गिन रहा
निज को निराश निरा खाली
हाथ पा रहा
आखिर अब तलक मैं कर
क्या रहा?
जीवन के इस अंतिम सोपान
पर उदास
करता मैं स्वयं का स्वयं से ही
परिहास
ऊपर विशाल गगन करता जा
अट्टहास
नीचे अनवरत सूखता जा रहा
है पारिजात
निर्मेष इस लंबी यात्रा में क्या लगा
मेरे हाथ?
यही सोचता क्रमशः मैं सूखता
जा रहा
अब मौत की अनचाहा आहट
पा रहा
फिर भी पता नही क्यो जीना
चाह रहा
शायद यह प्रेम का अतिरेक
ही रहा
जो तेरे दर्शन की प्यास लिये
जी रहा।
पर थक चुका मन अब आंख
मूँदता है
अपने अनंत की उस यात्रा पर
चलता है
जहाँ जाने से कभी बहुत वह
डरता था
वही अब जाने का मन बेशक
करता है।
तुम तो मिले नही कोई बात
नही
अपने चिर अस्तित्व में मिल
जाऊं सही
जीवन की अंतिम साध है
यही
इस तन के साधन को साध्य
समझा था
निर्मेष जीवन का एक विराट
भूल था।
निर्मेष