सु धिकी सुगन्ध
मेरे तापस!
मेरे योगी!
कई युगों के बाद कहीं से
मुझे तुम्हारी सुगन्ध आई
आँखें छलकीं,
मन भीगा
यादों की पँखुड़ियाँ ले
सुधि की तितली
ओस में खूब नहाई
मेरे तापस!
तुम क्यों भगवा पहने बैठे?
सृष्टा की रचना
इस सृष्टि का रस
क्योंकर तुम्हें न भाया
आओ! मन के सागर में
सुधि की नौका पर बैठ
पुराने मधुर मिलन की सुरसरि में हम
बह-बह जाएँ
मन पर जमे समय के मैल को
आओ चलो कहीं धो डालें
मेरे तापस!
मेरे सन्यासी!
जीवन की संध्या आई
आओ डालें हाथ-हाथ में
हम सरयू में
राम सरीखी जल समाधि ले लें
सो जाएँ
मेरे तापस!
मेरे योगी!
मेरे सन्यासी-ओ-मेरे मन
थक गए चरण
जीवन के दुर्गम पथ पर चलते
यह भगवा उपवीत तुम्हारा
तेरा सूनापन भी सारा
ओढ़ चलो
दोनों सो जाएँ
दूर कहीं पर
हम खो जाएँ
मेरे सन्यासी ओ-मेरे मन
चल फैल गगन बन