सुहाग
लघु कथा – सुहाग
रास्ते में एक व्यक्ति जा रहा था।उसे एक अभागिन महिला मिली।चेहरा काफी उदास थी।भाव भंगिमा से ही पता चल रहा था कि वह काफी दुखी थी।फिर उसने पूछा कौन हो क्यों उदास बैठी हो उस महिला ने अपनी सारी व्यथा उन व्यक्ति को सुनायी मेरा हंसता खेलता परिवार थी।मेरे एक बेटा और एक बेटी थी।हम लोग बहुत खुश थे।मेरे पति अर्थात मेरे सुहाग एक कंपनी में काम करते थे।उसके वेतन से सारा घर का खर्चा चलता था।एक दिन मेरे सुहाग पर किसी की बुरी नजर लग गई।वह गलत संगति में आकर दोस्तों के साथ नशे जुआ तथा कोठे में जाने की लत लग गया।फिर क्या उस दिन से घर पूरा बिखर गई।बेटा घर छोड़कर भाग गया।बेटी दूसरे के साथ चली गई।मैं परिवार में केवल अकेली बची। परिवार के बिना जीना बेकार है कहके वो सोच सोच के यहां रो रही थी।अंत में मुझे एक ही रास्ता मिली कि मुझे इस संसार को छोड़कर चली जाऊंगी इसी सोच में बैठी हूँ। उसकी कहानी सुनकर उस सज्जन ने उसे हौसला दिया और समझाया नारी अबला नहीं रही।अब जमाना बदल गया है।अब तो रानी लक्ष्मीबाई दुर्गावती का अवतार लो।संघर्षकर आगे बढ़ो।और इस संसार को दिखा दो नारी किसी से कम नहीं है।नारी को इस बात से जीने की एक चमक दिखाई दी और संघर्ष की आगे बढ़ी और इतना आगे बढ़ी।जो टीवी में आने लगी।लोग सब जाने लगे।उसके नाम से लोग जानते थे।फिर समाचार टीवी के माध्यम से उसके पति सुहाग बेटा बेटी सभी उनके पास आ गए ।सब मिल गए।सब एक साथ मिलकर खुशी से जीवन बिताने लगे।
★★★★★★★★★★★
लेखक – डिजेन्द्र कुर्रे (शिक्षक)
मिडिल स्कूल पुरुषोत्तमपुर
बसना, महासमुंद (छ.ग.)