” सुर्ख़ गुलाब “
आज गुलाब की टहनी कुछ उदास है..
भँवरे भी कुछ अनमने से इधर उधर घूम तो रहे हैं लेकिन वह गुँजारने को आमादा नहीं दिखते। तितलियां भी मानो आज नृत्य का कोई प्रयास ही नहीं करना चाहतीं। उधर कोयल के स्वर मेँ भी कोई दम नहीं प्रतीत होता।गिलहरियाँ भी मूँगफली के दाने नहीं पड़े होने से पेड़ के नीचे बार बार आकर मानो थक हार कर चुप सी बैठी हैं।भोर हुए काफ़ी देर हो चली है, सामने की दीवार पर बँधे तार को अब पीली सी धूप साफ़ छूती नज़र आ रही है।
लेकिन जो अब तक नहीं दिखा वो है हरिया, जो पूरे उपवन की अपने बच्चे की तरह देखभाल करता था विगत कम से कम बीस सालों से और पौ फटते ही बिला नागा खुरपी, साथ मेँ कुछ चने, मूँगफली, लय्या आदि लेकर हाज़िर हो जाता था।
शहर मेँ रहने वाले ठाकुर साहब का तक़रीबन आधा किलोमीटर की दूरी पर सड़क पार करते ही यह उपवन है, जहाँ आम, शहतूत, अँजीर, करौँदा, नीँबू व जामुन आदि के ख़ूब सारे पेड़ हैं, साथ ही गेँदा, गुड़हल, मनोकामिनी, चाँदनी, बेला, रात की रानी व सदाबहार आदि के फूल भी। यूँ तो कुछ गुलदाउदी और लिली भी हैं लेकिन गुलाब का एक ही पौधा, जिसकी देखभाल हरिया कुछ ज़्यादा ही मन लगाकर करता था। इधर-उधर का काम करके फिर गुलाब की जानिब ही मायल हो जाने मेँ रत्ती भर भी गुरेज़ न करता। अब तो उसका लड़का मोनू भी बड़ा हो चला है, लगभग 16 साल का और छुट्टी के दिन हरिया के साथ ज़रूर आता है यहां। गुलाब की इतनी ख़ास देखभाल पर उसे भी अचरज होता है और जब कोई कांटेदार शाख़ उसकी धोती से उलझ जाती है तो हरिया उसे समझाते नहीं थकता कि कितना प्रेम है इसे मुझसे, दूर जाने ही नहीं देता। जब गुड़ाई करते वक़्त सुर्ख़ गुलाब देखकर हरिया तन्मयता से गाता है-
गुलबवा जियरा लै गय हमार,
काहे की डोली, का ह्वै कहार।
गुलबवा…
तब तो मोनू बिलकुल चिढ़ ही जाता है और तुनक कर कह पड़ता है-
“जइस ऊ तोहार बात समझिन गवा होई..”
बहरहाल जब भी हरिया मोनू को अपना दोस्त कहता है तो मोनू मुँह फुलाकर देरी नहीं करता यह कहने में-
” कहि कुछू लेउ दादा, अकिले तोहार पक्की दोस्ती त ऊ गुलबवा सेई रही..!”
छुटपन से ही मोनू चाहता था कि उपवन मेँ आकर हरिया के साथ जी भरकर खेले, दौड़ लगाए मगर हरिया गुलाब मेँ ही अटक कर रह जाता था और ये अक्सर दोनों के बीच विवाद का विषय बनता था। बहरहाल उपवन मेँ एक ट्यूबवेल भी है और जो भी आता, वहाँ की छटा देखकर मन्त्रमुग्ध हुए बिना न रहता और भरी गर्मी मेँ भी घने पेड़ों की छाया मेँ एक असाधारण शीतलतामयी सुकून के अहसास से भर जाता और यही सोचता कि कुछ समय और यहीं बिता लूँ तो कितना आनंद आए।
मगर आज तो मोनू ही नहीं समूचे उपवन की भी क़िस्मत पर मानो वज्रपात हो गया था, उपवन के बाहर हजूम जमा था और सड़क पर पड़ी थी ख़ून से लथपथ हरिया की लाश..।
सभी लोग नाना प्रकार के क़यास लगा रहे थे, किसी का कहना था सड़क पार करते वक़्त शायद कोई नीलगाय आ गई होगी जिससे गाड़ी चालक सन्तुलन खो बैठा होगा जिससे दुर्घटना हुई तो कोई यह मत प्रकट कर रहा था कि ड्राइवर रातभर चला होगा, झपकी आ गई होगी। पूर्ण शराब बन्दी के हिमायती लोगों की भी कमी नहीं थी अलबत्ता कुछ यथास्थिति वादी लोग विकास को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे, यह कहकर कि जब ऊबड़खाबड़ सड़कें थीं तब इतनी रफ़्तार ही कहाँ बनती थी कि ऐसी दुर्घटनाएँ होतीं। कुछ ही दूरी पर एक सरदार जी का फार्म था जहाँ सुबह छत पर टहलते वक़्त उन्होंने एक आइशर कैन्टर टाइप की गाड़ी को तेज़ रफ़्तार मेँ जाते तो देखा था परन्तु न तो नम्बर देख पाए थे न ही वो स्थिति की भयावहता का आकलन कर सके थे और धुँधलके मेँ गाड़ी को चालक भगा ले गया था।
बहरहाल पुलिस पँचनामा आदि की औपचारिकताएँ पूरी करने मेँ व्यस्त थी। चोट मुख्यतः सिर मेँ लगी थी। ख़ून भी बेहद लाल था मानो गुलाब की भी सारी रँगत हरिया के साथ ही कुचल दी गई हो। तलाशी के दौरान बारह रुपये, बीड़ी का आधा बन्डल और एक माचिस मिली साथ मेँ एक पोटली जिसमेँ मूँगफली के कुछ दाने थे, लेकिन जिनपर ख़ून की एक भी बूंद तक नहीं। शायद गिलहरी की सामान्यतः शाकाहारी प्रवृत्ति का सम्मान करना हरिया अन्त समय तक नहीं भूला था..!
उपवन मेँ तो तेरह दिन के लिए जैसे सब कुछ थम सा गया था। आख़िर कौन पानी देता, और कौन साज सफ़ाई या निराई गुड़ाई करता। गुलाब की शीर्ष टहनी तो मानो शोकाकुल सम्मान मेँ आधी से अधिक झुकी ही रही। एक कली जो खिलने को आतुर थी, हरिया की प्रतीक्षा ही करती रह गई। मकड़ी ने भी उसके मनोभावों को भाँप कर चारों तरफ़ जाला बुन दिया ताकि और कोई उसे देख न पाए।
वक़्त तो कदाचित घाव भरने मेँ भी बड़ा माहिर है। चौदहवें दिन मोनू ख़ुद आ गया खुरपी लेकर। गिलहरियों के पास मूँँगफली के दाने बिखेरकर सीधे गुलाब के पास पहुंचा और निराई, गुड़ाई करने लगा। जाला साफ़ किया तो एक सुर्ख़ गुलाब दिख गया मुस्कुराता हुआ। दूसरी तरफ़ जाने लगा तो पाजामे का पाँयचा फँस गया गुलाब की एक शाख़ मेँ। बरबस ही उसके अधरों से ये बोल फूट पड़े-
गुलबवा जियरा लै गय हमार.।।।
पूरा उपवन मानो जीवन्त हो उठा था फिर से, लेकिन उसके नयनों से जो निर्झरिणी बह निकली थी वह मृतप्राय सी हो चली गुलाब से मित्रता की जड़ को अभिसिंचित कर मज़बूत करने पर तुली हुई थी जो कि अब पुश्तैनी रूप लेती जा रही थी…..
##———–##————##————