सुमन प्रभात का खिला
सुमन प्रभात का खिला
गगन धरा से जा मिला
ज्योति-किरण फूट पड़ी
मस्त घवन टूट पड़ी।
हिलती कमरिया गगरिया से बोलती-
जलभर – जलभर, मनभर – मन भर !
नित्य प्रति भोर में
मुर्गा है बाँगता ।
निशा से जैसे दिवस का
उपहार माँगता ।
कली खिली,
फूल बनी,
जन-जन से बोलती-
क्षण भर… क्षणभर.. खुशियों से मन भर !
बगरो बसंत में है,
चर्चा हिंडोल का।
हर तरफ मिठास है,
मिसरी-सी बोल का।
झूमती है मस्त पवन कण-कण में घोलती –
जन-मन में मधुरस, कर भर… कर भर !