*सुभान शाह मियॉं की मजार का यात्रा वृत्तांत (दिनांक 9 मार्च
सुभान शाह मियॉं की मजार का यात्रा वृत्तांत (दिनांक 9 मार्च 2011)
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लेखक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश, मोबाइल 9997615451
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रामपुर में सराय गेट नामक स्थान पर बाबा लक्ष्मण दास की समाधि है। बाबा लक्ष्मण दास एक सिद्ध संत हैं। वह आज भी जीवित अवस्था में ही समाधि में लीन माने जाते हैं। जब चिता पर रखने के बाद भी अनेक प्रयत्नों के बाद भी उनके शरीर का दाह-संस्कार नहीं हो सका था, तो उनके गुरू सुभान शाह मियाँ ने उन्हें चिता से उठकर खड़े होने के लिए कहा था और एक पात्र में बैठने के लिए कहा था। बाबा लक्ष्मण दास ने ऐसा ही किया। तत्पश्चात उन्हें जीवित अवस्था में ही जमीन में दफन कर दिया गया था। वह जमीन के भीतर समाते समय भी जीवित ही थे और ईश्वर में लीन थे। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी और इतिहास में कहीं भी इसके मुकाबले का कोई किस्सा सुनने में नहीं आता। बाबा लक्ष्मण दास की समाधि आज भी एक ऐसी जगह है, जिसे ईश्वरीय शक्तियों से भरा क्षेत्र कह सकते हैं।
इस समाधि की विशेषता यह है कि यहाँ बैठकर ध्यान लगाने मात्र से साधक को एक विशिष्ट अनुभूति होती है तथा वह तीस सैकेन्ड अर्थात आधे मिनट में ही ध्यान की एक विशेष अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
मैने सितम्बर 2007 से ध्यान लगाना शुरू किया था और 2010 के सावन के महीने में बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर विद्यमान दिव्यता का अनुभव किया था। समाधि का अनुभव ध्यान का ही अनुभव था। यह उससे भिन्न नहीं था। अन्तर केवल यह था कि समाधि में ध्यान सहसा लगता था और एक निश्चित ऊँचाई पर वह एकाएक पहुँचता था। इससे समाधि की बिलक्षणता सिद्ध होती थी और यह बात प्रमाणित होती थी कि वहाँ ऐसी दिव्य ऊर्जा विद्यमान है जिसकी अपनी एक विशेष शक्ति है।
नौ मार्च 2011 को मुझे सद्गुरू सुभान शाह मियाँ की मजार पर जाने का सुअवसर मिला। मैं काफी समय से इस मजार पर जाने की इच्छा रखता था। कारण यह कि यह मजार बाबा लक्ष्मण दास के गुरू की मजार है। मैं सोचता था कि जब शिष्य की समाधि इतने उच्च आध्यात्मिक गुणों से युक्त है, तो गुरू के मजार पर पता नहीं अनुभव कैसे मिलते होंगे। मैं उत्साहित था और बहुत पाने की इच्छा रखता था। यह मेरे लिए एक प्रयोग भी था। सद्गुरू सुभान शाह मियाँ की मजार जेल रोड पर पश्चिम दिशा को गली में मुड़कर तंग गलियों में स्थित है। इस जगह पर कुछ दूसरे रास्तों से भी गलियों से होकर जाया जा सकता है। मजार भले ही संकरी गलियों में स्थित है, लेकिन इसके भीतर काफी खुलापन है और काफी जगह है। इमारत पुरानी है और इसका यह पुरानापन आकर्षित करता है। साफ-सुथरेपन का ख्याल रखा गया है। चारों तरफ सादगी है। खामोशी बिखरी हुई है।
सद्गुरू सुभान शाह मियाँ के मजार परिसर में दो मुख्य मजारें है। परिसर के बीचों-बीच सद्गुरू सुभान शाह मियाँ की मजार है। यह इतनी बड़ी है कि इसके भीतर लगभग पैंतीस-चालीस लोग अन्दर वाली जगह में बैठ सकते हैं। दूसरी मजार सद्गुरू मौहम्मद गुल मियाँ की है। यह भी लगभग सद्गुरू सुभान शाह मियाँ की मजार जितनी ही बड़ी है। इस पर टीन की छत पड़ी है। यह इसकी प्राचीन बनावट को दर्शाती है।
मजार परिसर के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी इस समय श्री सगीर अहमद खां है जिनकी लगभग साठ वर्ष की आयु होगी। इससे पूर्व के गुरू अजीज खाँ और उससे भी पहले शागुल मियाँ मजार के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी रहे। उनसे मुलाकात हुई तो मन प्रसन्नता से भर उठा। मेरे साथ सहकारी युग प्रेस के मालिक श्री विवेक गुप्ता भी थे, बल्कि कहिए कि मैं उनके साथ था। श्री सगीर अहमद खाँ बहुत आत्मीयतापूर्वक मिले। यह उनके सहज स्वभाव की ही अभिव्यक्ति थी। मैंने उन्हें अपनी पुस्तक बाबा लक्ष्मण दास समाधि चालीसा की प्रति भेंट की। इस पर उन्होंने कहा कि अभी-अभी उन्होंने अपनी आँखों में दवाई डाली है अतः पढ़ नहीं सकते। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं यह चालीसा उन्हें पढ़ कर सुना दूँ। उनका यह आग्रह सुनकर मुझे बहुत ज्यादा खुशी हुई। मैंने यह सोचा भी नहीं था कि बाबा लक्ष्मण दास समाधि चालीसा का पाठ उनके सद्गुरू के मजार परिसर में हो जाएगा। मगर सच्चाई यही थी। मैंने भरपूर आवाज में यह पाठ किया और इसे निश्चय ही उन सब ने सुना होगा, जिनकी अदृश्य प्रेरणा से यह पाठ का प्रसंग उपस्थित हुआ था। श्री सगीर अहमद खाँ पाठ सुनकर खुश हो गए। चालीसा में सद्गुरू सुभान शाह मियाँ की अलौकिक आध्यात्मिक शक्तियों का उल्लेख था तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता का भाव भी था। इसमें खुदा और भगवान को एक समान बताया गया है तथा सब प्रकार के भेदभाव को अमान्य किया है। श्री सगीर अहमद खाँ ने कहा कि खुदा और भगवान एक ही हैं तथा जितने भी हिन्दू-मुस्लिम के भेदभाव बने हुए हैं वे सब वास्तव में कहीं नहीं हैं बल्कि यह भेदभाव बना दिए गए हैं। यह भेदभाव उस समय कोई मायने नहीं रखते जब कोई खुदा को चाहने वाला सादगी के रास्ते पर चलता हुआ पूरी तरह खुदा को पाने के लिए बेचैन हो जाता है। यही बेचैनी उसे खुदा से मिला देती है। यही बेचैनी उसे गुरु के दरवाजे पर ले जाती है। श्री सगीर अहमद खाँ खुद अपने आप में सादगी से भरे हुए आध् यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनसे मिलना और बातें करना एक अच्छा आध्यात्मिक अनुभव रहा।
श्री सगीर अहमद खाँ से बातचीत के बाद मैं खुदा और भगवान का ध्यान लगाने के लिए गया। सर्वप्रथम मैं सद्गुरू सुभान शाह मियाँ की मजार पर गया। सहज आसन में वहाँ जाकर आँखें मूंदकर मैं बैठ गया। मैंने अनुभव किया कि यहाँ आध्यात्मिक ऊर्जा बहुत सूक्ष्म पद्धति से कार्यरत है। इसकी लय के साथ मेरी भीतरी लय का तालमेल नहीं बैठ रहा था। कारण यह कि मेरी आध्यात्मिक यात्रा अभी शैशवावस्था में ही थी और सुभान शाह मियाँ की दिव्यता की ऊँचाई को पकड़ना मेरे लिए संभव नहीं था। वैसे मुझे यहाँ इस बिन्दु पर थोड़ी निराशा भी हुई। मैं समझता था कि जब बाबा साहब की समाधि में जाकर दिव्यता की लहर की अनुभूति मुझे हो चुकी है, तो उनके गुरू की मजार के अनुभव बहुत विलक्षण कोटि के जरूर होंगे। गुरु की मजार के अनुभव बहुत धीमी गति के थे। उनमें निरन्तरता थी तथा वे बहुत हल्के-हल्के चल रहे थे। मेरे जैसे शुरूआती स्थिति के साधक जो प्रतिदिन केवल बहुत थोड़े समय के लिए ध्यान में जाते हैं, इस प्रकार के सूक्ष्म अनुभवों को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हो पाए हैं।
अब मैं सद्गुरू मौहम्मद गुल मियाँ की मजार पर गया। मौहम्मद गुल मियाँ का महत्वपूर्ण स्थान है। यह सुभान शाह मियाँ के शिष्य थे। याद कीजिए, बाबा लक्ष्मण दास भी सद्गुरू सुभान शाह मियाँ के शिष्य थे। इस तरह बाबा लक्ष्मण दास और मौहम्मद गुल मियाँ-दोनों ही एक ही गुरू के शिष्य हुए। यह दोनों इस तरह गुरू भाई हुए। मैं मौहम्मद गुल मियाँ की मजार पर सहज आसन लगाकर आँखें बन्द करके बैठ गया। मेरे बाएं हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखा था। अभी तीस सैकेन्ड ही हुए होंगे अर्थात आधे मिनट ही बीता होगा कि मुझे ध्यान का वही अनुभव हुआ जो बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर होता है। मैं सोच में पड़ गया। हे भगवान! यह क्या हो रहा है? यह मैं कहाँ जा रहा हूँ? मुझे लगा कि मैं बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर पहुँच गया हूँ। वही माहौल । बिल्कुल ठीक वही माहौल। सौ प्रतिशत रूप से मैं बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर था। मैं इस बात को फिर से दोहरा रहा हूँ कि मौहम्मद गुल मियाँ की मजार पर ध्यान लगाने से मुझे ठीक यही महसूस हुआ कि मैं बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर बैठा हूँ। यह सैकेन्डों की बात थी, यह ऐसा था कि मानों मैं “यहाँ” की बजाय “वहाँ” पहुँच गया हूँ। ध्यान की एक खास स्थिति जो बाबा साहब की समाधि में मिलती है, वही स्थिति मौहम्मद गुल मियाँ की मजार पर भी मिली।
मैं नहीं कह सकता कि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि और मौहम्मद गुल मियाँ की मजार पर लगाए जाने वाले ध्यान में समानता का अनुभव क्यों हुआ? ऐसा कैसे हुआ कि मैं मौहम्मद गुल मियाँ की मजार पर उपस्थित हूँ मगर मुझे लग यह रहा है कि मैं बाबा साहब की समाधि पर उपस्थित हूँ? ये दोनों ही गुरू भाई हैं और एक ही गुरू के शिष्य हैं। इनकी आध्यात्मिक शक्तियाँ एक ही गुरू से प्राप्त की हुई हैं। हो सकता है कि इन दोनों ने ही एक समान आध्यात्मिक दिव्य ऊँचाई प्राप्त की हो । या यह भी हो सकता है कि इन दोनों की साधना की पद्धतियाँ एक समान हों। हो सकता है कि साधकों को आर्शीवाद देने का इन दोनों ही महान शिष्यों का तरीका एक जैसा हो । महान दिव्य विभूतियों को जान पाना लगभग असंभव है। इसलिए इन दो महान गुरू भाइयों की मजार औरं समाधि के रहस्यों को पकड़ पाना मुश्किल है। फिर भी इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि मजार और समाधि में कोई भेद नहीं होता है। खुदा और भगवान एक है। उस परम सत्ता को जो निराकार और अविनाशी है, किसी भी दायरे में बांधा नहीं जा सकता। खुदा या भगवान एक चेतना है, जो चाहे जहाँ महसूस हो मगर एक जैसी ही महसूस होगी। मैं सुखद आश्चर्य में डूबा हुआ घर लौटा। जो अनुभव हुआ, उसकी व्याख्या करना मेरी समझ से परे की चीज थी।
उपरोक्त लेख जब सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक रामपुर में प्रकाशित हुआ तब सुप्रसिद्ध हिंदी कवि भारत भूषण जी का 29 – 8 – 11 का पत्र संपादिका महोदया नीलम जी को प्राप्त हुआ। भारत भूषण जी लिखते हैं:-
दिनांक 29- 8- 11
शुभ श्री नीलम जी
सहकारी युग प्राप्त हुआ। रवि प्रकाश जी द्वारा सुभान शाह मियां का एक अनुभव पढ़कर मैं पुलकित हो गया। बहुत दिन से मैं स्वयं संतों और दरवेशों के पवित्र स्थानों से जुड़ गया हूं। बहुत आनंद आता है इन सब में। अफसोस यह है कि पहले इतनी बार रामपुर आकर भी कभी इस समाधि तक जाने का अवसर नहीं मिला। किसी से चर्चा भी नहीं हुई। मैं यहां कल्पना में ही पूज्य बाबा लक्ष्मण दास और पूज्य सुभान शाह मियां को अपने प्रणाम और चरण स्पर्श निवेदन कर रहा हूं।
आपका
भारत भूषण