Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
22 Jan 2018 · 7 min read

”सुबह का भूला”

इसे एक विचित्र संयोग कहें या फिर वास्तविकता, उच्च शिक्षा या रोजगार की तलाश में आँखों में सुनहरे सपने लिए जब एक युवा घर की देहरी को लाँघतें हुए, गाँव की गलियों और टेड़ी-मेड़ी पगडंडियों से होता हुआ आगे बढ़ रहा होता है, उसके मन में उंमगें हिलोरे मार रही होती है और वह संकल्पित हो प्रण कर लेता है कि शहर जाकर किसी योग्य बन जाने पर उस टूटी हुई छत को ठीक करेगा जिसमें से होकर बारिश का पानी उसे कई रातों तक सोने नहीं देता था, पिता छत की मरम्मत इसलिए नहीं करा पाते, सोचते इस राशि को बेटे के भविष्य संवारने में लगायेंगे वृद्धावस्था की ओर बढ रहे माँ-बाप के लिए गर्म शाल, कोट पहली तनख्वाह से खरीदेगा, जिन्होंने कई सालों से अपने लिए नए कपड़े ही नहीं खरीदे, उन खेतों को साहूकार के चंगुल से मुक्त करायेगा जो उसकी पढ़ाई के लिए कभी के गिरवी रख दिए गए हैं, उस बहिन के लिए सोचेगा जो बिना उसे खाना खिलाए कभी नहीं खाती और परदेश जा रहे भाई के सामने सिर्फ इसलिए नहीं आ रही है कि कहीं आँसुओं में डूबा उसका चेहरा देखकर भाई के कदम वहीं पर ठिठक जायेंगे, माँ के आँखों को मोतिया बिन्द और पिता की झुकी हुई कमर और घुटनों का इलाज करायेगा, इसके अलावा अपनी जन्मभूमि के लिए बहुत कुछ करेगा ऐसे अनेकों वादे वह युवा स्वंय से करता हुआ शहर में प्रवेश कर जाता है।
लेकिन यह क्या उसके वादे, उसके सकंल्प पूरा करने में दिन, महीने और सालों बीत जातें हैं, वह आरंभ में आज नहीं कल, परसों, अगले माह, अगले साल कहते हुए संतोष कर लेता है। लेकिन उसका कल कभी नहीं आता, इधर परेदश गए अपने उस लाड़ले की बाट जोहते-जोहते माँ-बाप बूढ़े और असहाय हो हर आहट को उसके आने का संकेत मानकर कुछ देर के लिए खुश हो जाते है, धीरे-धीरे डाकिए का आकर पोस्टकार्ड, लिफाफा या अन्तर्देशीय पत्र लाना भी बन्द हो जाता है, जैसे ही गली-मोहल्ले में डाकिया आता है तो आँखें टकटकी लगाए उसे देखने लगती है कि न जाने कब वह बेटे का समाचार उनको सुनाए, जवान हो चुकी बहिन भी एक दिन पराये घर चली जाती है, हर रक्षाबंधन और भाई दूज पर वह परदेश गए उस भाई का इंतजार करती है जो इन अवसरों पर बिना कलाई को सजाए मुँह में कुछ नहीं रखता था, आज भाई तो नहीं आता हाँ उसका मनीऑर्डर जरूर आ जाता है, क्या करूँ काम से फुर्सत ही कहाँ है जो गाँव आ सकूँ, मैं बहुत व्यस्त हूँ।
वास्तविकता यही है कि आज गाँव से निकलने के बाद युवा शहर का ही होकर रह गया है, वह गाँव में गुजारे गए प्रत्येक पल को भूलता जा रहा है, शहरी चकाचौंध में आँखें चुंधिया गई हैं, वह उस धरती माँ को भी भूल चुका है जो पैदा होते ही अपने आँचल में समेट लेती है, जिसके पेड़ों के झुरमटों में होकर सूर्य की किरण नवजात पर पड़ती है, जिसमें उगे अन्न का दाना मुँह में डालकर अन्नप्राशन संस्कार होता है, जहाँ के मुर्गे की बाँग और मन्दिरों में बजने वाले घण्टे-घड़ियाल व शंखनाद के साथ सुबह का आरंभ होता है, वह उन पनघटों को भी भुला देता है जहाँ पानी के लिए लम्बी कतारें लगा करती थी, वह बरगद जिस पर वह झूला करता था, अब उसे गौधूलि बेला में अपने खूँटों की ओर आ रहे गायों के खुरों से उड़ने वाली घूल और बैलों के गले में बंधी घंटियों की रून-झुन कर्णप्रिय घ्वनि भी नहीं याद आती, उसने कभी गाय की उस बछिया का हाल भी न पूछा जिसका नाम माँ ने उसी के नाम पर रख दिया था, आँगन में लगाए गए उन वृक्षों को भी याद नहीं करता जो आज पूरे गाँव को फलों का स्वाद चखा रहे हैं, वह गाय, बैल जो कभी उसकी आवाज सुनकर दौड़े चले आतें थे, घर का वह कोना जहाँ वह बचपन में छुप जाता करता था, वह बूढ़े माँ-बाप जिनकें मुरझाए चेहरे खामोश निगाहें, पानी से भर आयी आँखों में भरने से पहले केवल एक ही ख्वाहिश है कि काश उनका वह कलेजे का टुकड़ा एक बार ही सही आकर उनकों अपनी सूरत दिखा जाता।
इसे एक विचित्र संयोग कहें या फिर वास्तविकता, उच्च शिक्षा या रोजगार की तलाश में आँखों में सुनहरे सपने लिए जब एक युवा घर की देहरी को लाँघतें हुए, गाँव की गलियों और टेड़ी-मेड़ी पगडंडियों से होता हुआ आगे बढ़ रहा होता है, तो उसके मन में उंमगें हिलोरे मार रही होती है और वह संकल्पित हो प्रण कर लेता है कि शहर जाकर किसी योग्य बन जाने पर उस टूटी हुई छत को ठीक करवाएगा जिसमें से होकर बारिश का पानी उसे कई रातों तक सोने नहीं देता था, पिता छत की मरम्मत इसलिए नहीं करा पाते, सोचते इस राशि को बेटे के भविष्य संवारने में लगायेंगे वृद्धावस्था की ओर बढ रहे माँ-बाप के लिए गर्म शाल, कोट पहली तनख्वाह से खरीदेगा, जिन्होंने कई सालों से अपने लिए नए कपड़े ही नहीं खरीदे, उन खेतों को साहूकार के चंगुल से मुक्त करायेगा जो उसकी पढ़ाई के लिए कभी के गिरवी रख दिए गए हैं, उस बहिन के लिए सोचेगा जो बिना उसे खाना खिलाए कभी नहीं खाती और परदेश जा रहे भाई के सामने सिर्फ इसलिए नहीं आ रही है कि कहीं आँसुओं में डूबा उसका चेहरा देखकर भाई के कदम वहीं पर ठिठक जायेंगे, माँ के आँखों के मोतिया बिन्द और पिता की झुकी हुई कमर और घुटनों का इलाज करायेगा, इसके अलावा अपनी जन्मभूमि के लिए बहुत कुछ करेगा ऐसे अनेकों वादे वह युवा स्वंय से करता हुआ शहर में प्रवेश कर जाता है।
लेकिन यह क्या उसके वादे, उसके सकंल्प पूरा करने में दिन, महीने और सालों बीत जातें हैं, वह आरंभ में आज नहीं कल, परसों, अगले माह, अगले साल कहते हुए संतोष कर लेता है। लेकिन उसका कल कभी नहीं आता, इधर परेदश गए अपने उस लाड़ले की बाट जोहते-जोहते माँ-बाप बूढ़े और असहाय हो हर आहट को उसके आने का संकेत मानकर कुछ देर के लिए खुश हो जाते हैं, धीरे-धीरे डाकिए का आकर पोस्टकार्ड, लिफाफा या अन्तर्देशीय पत्र लाना भी बन्द हो जाता है, जैसे ही गली-मोहल्ले में डाकिया आता है तो आँखें टकटकी लगाए उसे देखने लगती है कि न जाने कब वह बेटे का समाचार उनको सुनाए। जवान हो चुकी बहिन भी एक दिन पराये घर चली जाती है, हर रक्षाबंधन और भाई दूज पर वह परदेश गए उस भाई का इंतजार करती है जो इन अवसरों पर बिना कलाई को सजाए मुँह में कुछ नहीं रखता था, आज भाई तो नहीं आता हाँ उसका मनीऑर्डर जरूर आ जाता है। आने के नाम पर एक रटा, रटाया शब्द जुबान पर रहता है, क्या करूँ काम से फुर्सत ही कहाँ है जो गाँव आ सकूँ, मैं बहुत व्यस्त हूँ।
वास्तविकता यही है कि आज गाँव से निकलने के बाद युवा शहर का ही होकर रह गया है, वह गाँव में गुजारे गए प्रत्येक पल को भूलता जा रहा है, शहरी चकाचौंध में आँखें चुंधिया गई हैं, वह उस धरती माँ को भी भूल चुका है जो पैदा होते ही अपने आँचल में समेट लेती है, जिसके पेड़ों के झुरमटों में होकर सूर्य की किरण नवजात पर पड़ती है, जिसमें उगे अन्न का दाना मुँह में डालकर अन्नप्राशन संस्कार होता है, जहाँ के मुर्गे की बाँग और मन्दिरों में बजने वाले घण्टे-घड़ियाल व शंखनाद के साथ सुबह का आरंभ होता है, वह उन पनघटों को भी भुला देता है जहाँ पानी के लिए लम्बी कतारें लगा करती थी, वह बरगद जिस पर वह झूला करता था, उसे भी अपनी स्मृति से विस्मृत कर चुका है। अब उसे गौधूलि बेला में अपने खूँटों की ओर आ रहे गायों के खुरों से उड़ने वाली घूल और बैलों के गले में बंधी घंटियों की रून-झुन कर्णप्रिय घ्वनि भी याद नहीं आती। उसने कभी गाय की उस बछिया का हाल भी न पूछा जिसका नाम माँ ने उसी के नाम पर रख दिया था, आँगन में लगाए गए उन वृक्षों को भी याद नहीं करता जो आज पूरे गाँव को फलों का स्वाद चखा रहे हैं। वह गाय, बैल जो कभी उसकी आवाज सुनकर दौड़े चले आतें थे, घर का वह कोना जहाँ वह बचपन में छुप जाता करता था, वह बूढ़े माँ-बाप जिनके मुरझाए चेहरे, खामोश निगाहें, पानी से भर आयी आँखों में मृत्यु को गले लगाने से पहले केवल एक ही ख्वाहिश है कि काश उनका वह कलेजे का टुकड़ा एक बार ही सही आकर उनकों अपनी सूरत दिखा जाता।
आज खाली होते गाँव और बूढ़े होते माँ-बाप का यही दर्द है जो एक जगह, प्रान्त में नहीं बल्कि सर्वत्र देखा और महसूस किया जा सकता है। गाँव से आकर शहरी बाबू के रंग में पूरी तरह रंग चुका युवा विभिन्न सम्मेलनों, सेमिनारों में ग्रामीण परिवेश की बुराईयाँ, संसाधनों की कमी, ग्राम्य व शहरी जीवन की तुलना कर विकास के पथ पर बढ़ने के लिए शहरी जीवन के संदर्भ में तर्क देकर भीड़ में तालियाँ जरूर बटोर सकता है किंतु कभी यह भी सोचा है कि जिस जन्म भूमि में पैदा होकर आज इस मुकाम तक पहुँचा है, जिन बूढ़े हो चुके माँ-बाप के थरथरातें हाथ आज भी उसकी दुआ के लिए उठते हैं, जो उसकी धन-दौलत नहीं केवल दो बोल सुनने को तरस गए हैं वह सभी उस गाँव की माटी में आज भी रचे-बसे उसकी कामना कर रहे हैं।
सच तो यही है कि महानगरीय परिवेश में रच-बस चुके युवा की चुधियाई आँखें अपने अतीत में सोचने का समय ही नहीं देती और बहुत कुछ हाथ से निकल जाता है। इसका अहसास जब होता है बस हाथ मसल कर रह जाते हैं, धरती माँ का आँचल अपने बच्चों के लिए हमेशा खुला रहता है, अपनी जन्म भूमि का ऋण चुकाने का भाव जब भी मन में आ जाए वही अच्छा है क्योंकि जब जागो तब सवेरा और सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते।

डॉ. सूरज सिंह नेगी
लेखक, कहानीकार एवं उपन्यासकार
मोबाईल नं0 9660119122

Language: Hindi
Tag: लेख
1 Like · 1 Comment · 1362 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
*बचकर रहिएगा सॉंपों से, यह आस्तीन में रहते हैं (राधेश्यामी छंद
*बचकर रहिएगा सॉंपों से, यह आस्तीन में रहते हैं (राधेश्यामी छंद
Ravi Prakash
"" *पेड़ों की पुकार* ""
सुनीलानंद महंत
खुदा भी बहुत चालबाजियाँ करता।
खुदा भी बहुत चालबाजियाँ करता।
Ashwini sharma
बहुत से लोग आएंगे तेरी महफ़िल में पर
बहुत से लोग आएंगे तेरी महफ़िल में पर "कश्यप"।
Prabhu Nath Chaturvedi "कश्यप"
कह गया
कह गया
sushil sarna
"आँसू "
Dr. Kishan tandon kranti
हो हमारी या तुम्हारी चल रही है जिंदगी।
हो हमारी या तुम्हारी चल रही है जिंदगी।
सत्य कुमार प्रेमी
ग़ज़ल : तुमको लगता है तुम्हारी ज़िंदगी पुर-नूर है
ग़ज़ल : तुमको लगता है तुम्हारी ज़िंदगी पुर-नूर है
Nakul Kumar
एक कहानी सुनाए बड़ी जोर से आई है।सुनोगे ना चलो सुन ही लो
एक कहानी सुनाए बड़ी जोर से आई है।सुनोगे ना चलो सुन ही लो
Rituraj shivem verma
3214.*पूर्णिका*
3214.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
मंजिल
मंजिल
Dr. Pradeep Kumar Sharma
लौट आओ तो सही
लौट आओ तो सही
मनोज कर्ण
प्रेम किसी दूसरे शख्स से...
प्रेम किसी दूसरे शख्स से...
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
#आज_का_संदेश
#आज_का_संदेश
*प्रणय*
संवेदना
संवेदना
नेताम आर सी
The Moon and Me!!
The Moon and Me!!
Rachana
महोब्बत के नशे मे उन्हें हमने खुदा कह डाला
महोब्बत के नशे मे उन्हें हमने खुदा कह डाला
शेखर सिंह
जीवन में अहम और वहम इंसान की सफलता को चुनौतीपूर्ण बना देता ह
जीवन में अहम और वहम इंसान की सफलता को चुनौतीपूर्ण बना देता ह
Lokesh Sharma
रो रो कर बोला एक पेड़
रो रो कर बोला एक पेड़
Buddha Prakash
Live in Present
Live in Present
Satbir Singh Sidhu
किसी भी काम में आपको मुश्किल तब लगती है जब आप किसी समस्या का
किसी भी काम में आपको मुश्किल तब लगती है जब आप किसी समस्या का
Rj Anand Prajapati
लघुकथा-
लघुकथा- "कैंसर" डॉ तबस्सुम जहां
Dr Tabassum Jahan
अपने होने का
अपने होने का
Dr fauzia Naseem shad
मेरे ख्याल से जीवन से ऊब जाना भी अच्छी बात है,
मेरे ख्याल से जीवन से ऊब जाना भी अच्छी बात है,
पूर्वार्थ
दीवाना - सा लगता है
दीवाना - सा लगता है
Madhuyanka Raj
ज़िंदगी की कँटीली राहों पर....
ज़िंदगी की कँटीली राहों पर....
Shweta Soni
"युद्ध नहीं जिनके जीवन में, वो भी बड़े अभागे होंगे या तो प्र
Urmil Suman(श्री)
लोग कहते ही दो दिन की है ,
लोग कहते ही दो दिन की है ,
Sumer sinh
नारी शक्ति का सम्मान🙏🙏
नारी शक्ति का सम्मान🙏🙏
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
🥀*अज्ञानी की कलम*🥀
🥀*अज्ञानी की कलम*🥀
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
Loading...