सुपर-30 : शिक्षा का क्रांतिघोष
बेशक मैं कहूंगा मुझे क्या, हम सभी भाइयों को घर से पर्याप्त समय, संसाधन और संरक्षण मिला. पिताजी जिन्हें मैं पापाजी कहता हूं, शिक्षक थे, अब सेवानिवृत्त हैं. इस नाते घर में तथाकथित सुसंस्कारित वातावरण था, अब भी है. ऊपर से परिवार खेतीबाड़ी से जुड़ा है. खासकर पापाजी को खेतों और प्रकृति से बेहद-बेहद लगाव है. अत: मेरा सारा समय स्कूल, घर और खेत में बीतता था. पढ़ाई के प्रति तो शुरू से ही लगाव रहा है अत: पाठ्यक्रम की किताबें पढ़ना और पापाजी के साथ खेतों में जाना, यह नित्यक्रम कक्षा12वीं तक रहा. उस वक्त ऐसा कुछ मनोवातावरण निर्मित हो गया था कि फिल्म देखना और खेलना जैसे कोई दुष्कृत्य हो. आज मुझे अपनी इस कमजोरी पर भारी अफसोस होता है. नतीजतन मैंने उस दौर में एकाध कोई मूवी टॉकीज में देखी होगी. हां गांव में टेलीविजन के आने पर दूरदर्शन में हर शुक्रवार को पड़ोस में ‘चित्रहार’ में फिल्में गाने सुनने जरूर जाता था लेकिन उस वक्त भी अपराधबोध होते रहता था कि जैसे कोई गलत काम कर रहा हूं. हां गर्मी की छुट्टियों में साहित्यिक किताबें पढ़ने का चस्का जरूर लग गया था क्योंकि पापाजी के पास स्कूल की लाइब्रेरी का प्रभार था. कहने की बात यह है कि न तो मैंने पहले ही मूवी देखी और न ही अब देख पाता हूं. हाल के 10-15 वर्षों में प्रतिवर्ष औसत एक मूवी देख लेता हूं. अभी-अभी दो-तीन वर्षों में फिल्म देखने की दर बढ़ी है. तब मैं महसूस करता हूं कि हर अभिभावक को अपने जीवन के संध्या काल तक चयनित मूवी जरूर देखनी चाहिए और बच्चों को भी देखने के लिए सजेस्ट करना चाहिए. इस वर्ष भी मैंने हाल ही रिलीज मूवी सुपर-30 देखी, जिससे मैं बहुत ही अभिभूत हुआ जिस तरह रजनीकांत की फिल्म ‘काला’ देखने पर हुआ था. मैं आग्रह करूंगा कि आप भी थियेटर में जाकर जरूर देखें. फिल्म देख कर लगा कि हमारे क्षेत्र की हमारी पिछली पीढ़ी अगर आनंद कुमार की दिशा में एक प्रतिशत भी मूवमेंट की होती तो देश कहां से कहां तक पहुंच गया होता. हमारे क्षेत्र में शिक्षा का जो भी विकास हुआ, वह सिर्फ सरकार के भरोसे हुआ, समाज के पढ़े-लिखे लोंगों की अपनी कोई खास भूमिका इसमें नहीं है.
खैर, कमाल टाकीज में जैसे ही मूवी शुरू हुई, मैं शुरू से स्टोरी से बंध गया, खत्म कब हो गई, पता ही नहीं चला. इंटरवल मुझे ऐसे लगा जैसे कोई बीच में रंग में भंग कर दिया हो. ऋतिक रोशन इस फिल्म में आनंद कुमार बने हैं. हालांकि यह फिल्म पूरी तरह बिहार के सुपर-30 कोचिंग संस्थान के संस्थापक आनंद कुमार के जीवन संघर्ष पर केंद्रित है जो बिहार की राजधानी पटना के कुम्हरार इलाके में गरीब छात्रों को इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) संस्थानों में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं. यह इलाका दलित-पिछड़ा बहुल है. यह उस दौर की कहानी है जब शिक्षा हमसे कोसों दूर थी, खासकर उच्च शिक्षा तो मानकर चलिए हमारे लिए दूर की कौंड़ी थी. समाज का प्रभु वर्ग उस वक्त नहीं चाहता था कि गांव-गांव तक स्कूल-सड़क पहुंचे.
फिल्म का मुख्य संदेश है-शिक्षा पर सबका अधिकार है. आनंद के जीवन पर केंद्रित यह फिल्म शुरू होती है फुग्गा कुमार (विजय वर्मा) के लंदन में आयोजित मेधावी इंजीनियरों के एक कार्यक्रम में दिए जा रहे वक्तव्य से. यह पात्र कहता है ‘‘जी हां! इंडिया से! थर्ड वर्ल्ड कंट्री! डेवलपिंग नेशन, चीप लेबर का ंदेश! फिर हम सोचते हैं पेप्सीको का वर्ल्डवाइड हेड कौन है, यूनीलीवर कौन चला रहा है, कौन चला रहा है मास्टर कार्ड, एडोबी, वोडाफोन, ड्यूश बैंक! अगर किसी को नहीं पता है तो गूगल कर लीजिए न! यदि लगेगा कि गूगल का हेड कौन है तो वो भी एक इंडियन ही है! कोलंबस इंडिया का खोज करने निकले थे, पता नहीं अमेरिका कैसे पहुंच गए. दुनिया का हर सातवां आदमी तो इंडियन है, किसी से पूछ लेते भाई कहां है इंडिया, कोई भी बता देता.’’
यह पात्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं, ‘‘हमारा नाम फुग्गा कुमार है, फुग्गा मतलब वैलून. हमारे पिता जी गुब्बारा बेचते थे, वो (आप लोगों के बीच) बैठे हैं माई फादर एंड माई मदर. मेरे पिताजी सड़क पर गुब्बारा बेचते थे अब यहां बैठे हैं आप लोगों के बीच में! यह सब हो सका केवल एक आदमी के वजह से, जिन्होंने हमारा लाइफ चेंज कर दिया. और यह उन्हीं की कहानी है.’’ यहीं से शुरू हो जाती है आनंद कुमार के संघर्ष और फर्श पर रहने वाले मेहनतकशों का ‘सुपर-30’ के माध्यम से अर्श पर पहुंचने का ख्वाब देखने की दास्तान.
फिल्म बताती है कि आनंद किस प्रकार संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं. गणित में उनकी रुचि होती है और संसाधनों के अभाव के बाद भी उन्हें जुनून की हद तक गणित से प्यार होता है. इसी के चलते उनका कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में चयन हो जाता है, लेकिन वह पैसे और सम्पन्न परिवार से नहीं होने के कारण वहां एडमिशन नहीं ले पाते. इसी आपाधापी में उनके पिताजी की मृत्यु हो जाती है. घर का सारा दारोमदार उनके कंधे पर आ जाता है और वह पापड़ बेचने लगते हैं.
आनंद कुमार गणित का मेधावी छात्र है. वर्ष 1996 में रामानुजन डिबेट का प्रथम पुरस्कार (महान मैथेमेटेशियन रामानुजन के नाम पर प्रतिष्ठित पुरस्कार) जीतने पर आनंद कुमार को शिक्षा मंत्री श्रीराम सिंह (पंकज त्रिपाठी) पुरस्कार से नवाजते हैं.
फिल्म में भी आनंद के जीवन में प्यार को दिखाया गया है. उनकी प्रेमिका ऋतु रश्मि का किरदार मृणाल ठाकुर ने निभाया है. हालांकि बताया जाता है कि वास्तविक जीवन में आनंद ने अंतरजातीय प्रेम विवाह किया है. यानी रील लाइफ में आनंद ऋतु रश्मि के ब्वॉयफ्रेंड हैं तो रीयल लाइफ में हसबैंड.
रामानुजन पुरस्कार जीतने से उत्साहित आनंद कुमार अपनी प्रेमिका ऋतु रश्मि (मृणाल ठाकुर) से कहता है, ‘बहुत मेहनत करेंगे, कैंब्रिज जाएंगे, आॅक्सफोर्ड जाएंगे, मैथ में पीएचडी करेंगे. ईश्वर (आनंद के पिता राजेंद्र कुमार, आनंद अपने पिता को ईश्वर नाम से पुकारता है, जिसका किरदार वीरेंद्र सक्सेना ने निभाया है.) की भी यही इच्छा है.
आज जिस आनंद कुमार (जो कि पिछड़ी जाति कहार से आते हैं) को विश्व स्तरीय पर सराहा जा रहा है, उसी आनंद को अपमान के कड़वे घूंट भी पीने पड़े. मसलन, एक दृश्य में दिखाया गया है कि गणित से जुड़े शोध ग्रंथों के अध्ययन के आनंद दिल्ली के एक कॉलेज लाइब्रेरी में जाते हैं और उन्हें आउटसाइडर कहकर अपमानित किया जाता है. लेकिन आनंद हार नहीं मानते हैं. उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है जब लाइब्रेरी का चपरासी आनंद से कहता है, ‘तुम्हें विदेशी जनरल ही चाहिए न! एक रास्ता है इसे पाने का. यदि तुम्हारा लिखा हुआ आर्टिकल इसमें छपेगा न, तो पूरी जिंदगी घर बैठे फ्री में आएगा. समझे!’
उसकी बात सुनकर आनंद गणित एक ऐसे प्रमेय का हल निकालते हैं जो पहले किसी ने सुलझाया नहीं था. वह यह विदेशी जनरल पाने के लिए करते हैं.
फिल्म के जरिए बिहार के सामाजिक हालात का भी बखूबी चित्रण किया गया है. फिल्म में दिखाया गया है कि प्रमेय हल करने के बाद उसे विदेशी जनरल शोध पत्र में प्रकाशन के लिए लंदन भेजने की जब बारी आती है तब आनंद को पैसे कम पड़ जाते हैं. उनके पिता राजेंद्र कुमार डाकिया हैं. वे आनंद से पूछते हैं कि पोस्ट में क्या है, तो आनंद कहते हैं—‘फॉरेन जनरल के आर्टिकल भेज रहे हैं, मैथ का प्राब्लम है जो आजतक साल्व नहीं हुआ है तो हम कर दिए.’
आनंद की बात सुनकर पोस्ट-आॅफिस का एक अधिकारी त्रिवेदी चौंक जाता है और कहता है— ‘मतलब अंग्रेजवा सब जो नहीं किया है वो तुम कर दिए?’
तब आनंद के पिता कहते हैं‘अरे छोड़िए त्रिवेदीजी, इनकरेज कीजिए. इसे भेजने के लिए थोड़ा-थोड़ा चंदा दीजिएगा न, इ छप गया न तो बिहार का नाम बहुत रोशन होगा.’
जवाब में त्रिवेदी कहता है, ‘कुछो नाम रोशन नहीं होगा बिहार का. इ अंग्रेज लोग इसी तरह से हमारा ब्रिलिएंट दिमाग को चुरा लेता है. हमारे धरमग्रंथों का सारा ज्ञान यही लोग चुरा लिए.’
आनंद के पिता जवाब देते हैं,‘इ पूरा ज्ञान काहे गायब हुआ, काहे? काहे कि हम उसको बांटे नहीं. बांटने से ज्ञान दू का चार हो जाता है, नहीं बांटने से दू से जीरो.’
त्रिवेदीजी—‘अरे, आंटने-बांटने से कुछ नहीं होता है राजेंद्र बाबू, राजा का बेटा राजा बनता है. अब बुझाया.’
आनंद के पिता उसका विरोध करते हुए कहते हैं, ‘आप अभी भी पुराना कैलेंडर देख रहे हैं त्रिवेदी बाबू. समय बदल गया है. अब राजा का बेटा राजा नहीं होता, ऊ होता है जो हकदार होता है.’
इस तरह यह मूवी गंभीर विषय पर जरूर है किंतु है बहुत ही शानदार और रुचिकर. खासकर पटना के टोन में उनके डायलॉग दर्शकों को कभी ताली बजाने को मजबूर कर देते हैं तो कभी आंखें नम भी हो जाती हैं. मेरी तो कई बार आंखें नम हुई हैं. कई बार तो बुक्का फाड़कर रोने का मन हुआ किंतु अपने आपको संभाल लिया. अरे मैंने तो सारी कहानी ही बता दी लेकिन फिर भी आप समय निकालकर इस मूवी को जरूर देखिएगा. पूरी फिल्म देखने का अलग ही आनंद है.