सुनो सखी !
सुनो सखी ! तुम कैसी हो ?
जैसी पहले थी क्या अब भी वैसी हो ?
या मेरी तरह आंसू झुर्रियों में छिपा लेती हो ,
कोई हाल पूछता है तो मुस्कुरा लेती हो ।
मैं नहीं देख पाती दीवार के उस पार तुम्हें ,
मगर मैं हर रोज सुनती हूं ,
तुम पर कसते हुए उन तानों को ,
तुम्हारी दो रोटियां , बच्चों पर कितनी भारी हैं !
सखी परेशान मत हो , आज तुम्हारे साथ है
कल मेरी भी तो बारी है ।
देखो ना ! ये तुम्हारे सफेद बाल कितने उलझे हैं ?
जैसे बाल न हों जिंदगी हो ,
मैंने सुना है हमारे बेटे हमें वृद्धाश्रम भेजना चाहते हैं ,
जैसे हम उनकी मां नहीं ,उनके घर में गंदगी हों ।
कितनी अजीब बात है ना !
एक मुद्दत के बाद तुम्हें देखा है ।
अब क्या कहें अपने दुख सखी ?
ये सब किस्मत का लेखा है ।
सुनो सखी ! अब घुटने बूढ़े हो चले हैं ,
चैन की नींद सोए कई रोज हो गए ,
जिनके लिए किया जीवन समर्पित ,
उनके लिए हम बोझ हो गए ।
सुनो सखी ! अब चलती हूं ,
डरती हूं कोई सुन न ले !
और फिर क्या पता ये हमारी आखिरी मुलाकात हो ?
आज तो मुंडेर पर हुई हैं ,
क्या पता दोबारा वृद्धाश्रम में बात हो ?
मंजू सागर
गाजियाबाद