सुखिया
शीर्षक – सुखिया
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मैं मकान की दूसरी मंजिल पर बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। और करना भी क्या था सत्तर की उम्र में। बहू-बेटे नौकरी के सिलसिले में बाहर रहते थे। घर पर मैं और मेरी बुड़िया। तभी अचानक बाहर से आ रहे शोर पर ध्यान गया। खिड़की खोलकर देखा तो कुछ बच्चे सुखिया को पगली-पगली कह परेशान कर रहे थे। मैंने डांट कर उन बच्चों को भगा दिया। सुखिया डरी-सहमी सी देहरी से सिमट कर बैठी थी। वह शायद भूखी थी। मैंने अपनी पत्नी से उसे खाना देने को कहा और पलंग पर आ कर लेट गया। दिमाग अनायास अतीत की गहराइयों में खोता चला गया, जब सुखिया गाँव में ब्याह कर आयी। थोड़े ही दिनों में उसने अपने घर को सम्हाल लिया था। साफ-सफाई से लेकर पूरे घर की चाक-चौबंद व्यवस्था से उसने सबका मन मोह लिया था। सुंदर व सुशील महिला के रूप में पूरे गाँव में उसकी चर्चा थी। सच में रतनू के बड़े अच्छे कर्म थे जो ऎसी लुगाई मिली। हमसे छोटा था रतनू। हमें दद्दा कहता था जब भी मेरी पत्नी को कोई काम पड़ता तो रतनू ओर सुखिया दोनों दोड़े दोड़े चले आते थे। काम में भी हाथ बटा लेते थे। ब्याह के बाद सुखिया के बमुश्किल दो-तीन सावन ही बीते होंगे कि उसकी हँसती खेलती दुनिया को नजर लग गई l रतनू को पता नहीं कैसे सनक लग गई अमीर होने की। वह शहर जाने की जिद करने लगा था। सुखिया से कहता, ‘मै शहर से चाँद-सितारे ला कर उनसे तेरी मांग भरूँगा। खुशियों से तेरा दामन भर दूँगा। जब से ब्याह कर लाया हूँ तब से तुझे कुछ नहीं दे पाया।’
‘तू काहे परेशान होता है। मुझे कुछ नहीं चाहिए तेरे सिवा। तू ही तो मेरा चाँद सितारा है। न मुझे दौलत चाहिए न चाँद चाहिए। एक जून की रोटी खाकर गुजारा कर लूँगी।’ हर तरह से सुखिया समझाती रही लेकिन रतनू नहीं माना और शहर चला गया।
सुखिया वर्ष दर वर्ष उसकी राह देखती रही लेकिन रतनू लौट कर नहीं आया। पता नहीं शहर की चकाचौंध में कहाँ खो गया था। कितनी चिट्ठियाँ तो मैंने लिखीं, लेकिन उसका कोई जबाब न आया। राह तकते-तकते बैचारी पगला सी गयी थी। कोई औलाद भी नहीं थी। किसका सहारा तकती। बेचारी को न अपने मन की सुधि रही न तन की। उसकी दुखियारी आवाज में बस यही सुनाई पड़ता है… ‘तू लौट आ रतनू। मुझे चाँद-सितारे नहीं चाहिए…
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राघव दुबे
इटावा (उ0प्र0)
8439401034