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24 Apr 2019 · 2 min read

सीमित दायरे

लघुकथा
शीर्षक – सीमित दायरे
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– ” माँ मै उस वहसी दरिंदे के साथ एक पल भी नहीं रह सकती,,, मुझे रात दिन टॉर्चर करता है,,, पिछले दस सालों से सह रही हूँ ये सब,,, अब मेरी बर्दास्त के बाहर हो गया है… बच्चे भी अब बड़े हो गए हैं,, उन्हे खोफ़ के साये में नही जीने दे सकती” – रीमा ने अपने जख्म दिखाकर सुबकते हुए अपनी माँ से कहा l

-” लेकिन बेटी समाज क्या कहेगा, एक साल से तेरी बड़ी बहन भी यहाँ बैठी हुई है और अब तू भी… मै जानती हूँ वो लोग वहसी है, दरिंदे हैं… लेकिन इसका मतलब ये तो नही की उन्हे छोड़ कर आ जाओ,,, मैंने तो अच्छा खानदानी घर देखकर तुम दोनों के लगन करे थे लेकिन मुझे क्या पता तुम्हारी किस्मत ही खराब है,,, मै क्या कर सकती हूं इसमें… ” – माँ ने समझाने का यत्न किया।

– ” माँ ! तुम कैसी बाते कर रही हो ,,, जबकि जानती हो कि तुम ही इन सब की जिम्मेदार हो.. शादी के समय हम दौनो ने कितना मना किया था कि मुझे रईसों के यहां व्याह नहीं करना… हमसे उम्र में दुगने वर,ऊपर से जुआरी- शराबी… लेकिन आपने उनके सब अवगुण, उनकी दौलत के सामने अनदेखे कर दिए.. क्यों माँ ?… हम जानते हैं माँ, बापू के जाने के बाद हम लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रही… सभी दायरे सीमित हो गये लेकिन माँ, सीमित दायरों में भी तो सुयोग्य वर मिल सकता था जो हम लोगों की खुशियों से सरोकार रखता… ऎसे पैसे का क्या माँ जिसने हमारी खुशियों को ही जमींदोज कर दिया ,,, ” – रीमा अनवरत रोये जा रही थी।

रीमा की बातें सुन, माँ की आँखों से आँसुओं की धारा वह निकली, और आँखें झुकी हुई थीं, मानो आँखे माफी मांग रही हों …. काश! मैंने पहले ही तेरी बात मान ली होती, बेटी! मुझे माफ कर दो ,,, मुझे माफ़ कर दो l

राघव दुबे
इटावा (उप्र)
84394 01034

Language: Hindi
220 Views
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