सीमाओं का परिसीमन
“सीमाओं की परिसीमन”
सीमाओं को कहां,कब, कितना कोई स्वीकारता है
जिसे देखो, वही हरपल, हरदम उन्हें ललकारता है
पर अक्सर सीमाएं,हमारी अपनी ही बनाई होती हैं
सही मानें तो असल कम ज्यादा सुनीसुनाई होती हैं
और ये सीमाएं बनती नहीं हैं, हमेशा बनाई जाती हैं
सीमाओं में रहो, ये बात बचपन से समझाई जाती है
यहां हर कोई अपनी ही सीमाओं में जकड़ा हुआ है
हर किसी ने यहां,अपनी ही हदों को पकड़ा हुआ है
इन सीमाओं का प्रभुत्वता से बड़ा ही गहरा नाता है
प्रभुत्व को ही प्रभुत्व के छिनने का भय खाए जाता है
आज हमें अपनी सीमाओं को जानने की जरूरत है
उन्हें जान कर उन से बाहर निकलने की जरूरत है
ताकि हमारी कमजोरियां हमारी सीमाएं ना तय करें
और हम दूसरों पर विजय से पहले खुद पर जय करें
आओ आज एक बार फिर हम अपनी कला, हुनर,
अपनी काबिलियत की सीमाओं को ललकारते हैं
स्वावलंबी कर्मठ स्वतंत्र सोच रख, सही मायनों में
स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं अपना जीवन सुधारते हैं
~ नितिन जोधपुरी “छीण”