*”सीता माता का प्रागट्य’*
“सीता जी का प्रागट्य “
रामायण के रामकथाओं में “सीता माता” के चरितार्थ मुख्य पात्र है सीता मैया मिथिला में जन्मी थी। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार वैशाख शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को माता सीता जी का प्रागट्य हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि में पुष्य नक्षत्र के मध्यान काल में जब राजा जनक जी संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ भूमि तैयार कर रहे थे तभी वहां जमीन में हल से भूमि को जोत रहे थे तभी अचानक उसी समय पृथ्वी से एक दिव्य कन्या का प्रागट्य हुआ जोती हुई भूमि पर हल की नोंक को भी “सीता” कहा जाता है इसलिए उस दिव्य सुंदर बालिका का नाम भी “सीता” ही रखा गया था।अतः यह पर्व “जानकी नवमी” के रूप में मनाया जाता है।
जहां सीता माता का जन्म हुआ था उस जन्मस्थली को “सीतमढ़ी” के नाम से विख्यात हुआ है।देवी सीता मिथिला के नरेश जनक जी की ज्येष्ठ पुत्री थी उनका विवाह अयोध्या नगरी के कि नरेश राजा दशरथ जी के ज्येष्ठ पुत्र राम जी के साथ स्वंयवर में शिवधनुष तोड़ने के उपरांत हुआ था।
सीता माता ने अपने स्त्री धर्म का पालन करते हुए पतिव्रत धर्म का पूर्ण रूपेण पालन किया था। त्रेतायुग में उन्हें सौभाग्य की देवी लक्ष्मी जी का अवतार माना गया था।
सीता माता का अर्थ पृथ्वी से हल से जोती हुई रेखा होने से सीता “भूमिजा” तथा कृषि की अधिष्ठात्री देवी भी कही जाती थी।विदेह राज जनक की पुत्री होने के कारण “वैदेही” तथा जानकी , जनकनंदिनी भी कहा जाता था।
माँ सीता को शक्ति का स्वरूप माना गया है ब्रम्ह व शक्ति के मिलन से ही संपूर्ण सृष्टि रचना होती है। शक्ति का स्वरूप होने से सीता जी से क्षमा का गुण सीखा जा सकता है अर्थात वो साक्षात क्षमा की मूर्ति हैं।
सीता मैया के तीन स्वरूप है।
पहला शब्द ब्रम्हामयी दूसरा स्वरूप में “सीरध्वज” (जनक) की यज्ञ भूमि से हल के अग्र भाग से उत्पन्न हो तथा तीसरे स्वरूप में अव्यक्त स्वरूपा “शौनकीय तंत्र” नामक ग्रन्थ के अनुसार वे मूल प्रकृति कहलाने वाली आदि शक्ति भगवती है जो इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति, व साक्षात शक्ति तीनों लोकों में प्रगट हुई है।
सीता जी परम साध्वी व पतिव्रता स्त्री पति परायण हैं जिन्होंने पति के सानिध्य में रहकर सेवा के उद्देश्य से राजभवन की विलासिता पूर्ण जीवन का परित्याग कर चौदह वर्ष वनवास जाना स्वीकार किया था।
माता सीता जी की जीवन मे कई परीक्षा हुई जब अपनी प्रमाणिकता को बताने के लिए अग्नि परीक्षा हुई उस समय उन्होंने अग्नि देव से कहा – ” हे अग्नि देव यदि मेरा हृदय एक क्षण भी राम जी से दूर हुआ हो तो आप मुझे अपनी शरण में लेकर मेरी रक्षा कीजिये” यह कहते हुए सीता माता अग्नि के भीतर समा गई थी फिर अग्निदेव माता सीता जी को लेकर प्रगट हो गए और बोले “सीता माता पवित्र” है मैं इन देवगणों के उपस्थिति में सीता माता जी को आपको समर्पित कर रहा हूँ।
सीता माता जब अग्नि में समा गई थी तब वहां पर मायारूपी सीता मैया याने उनकी छाया को ही रावण हरकर ले गया था रावण के वध के बाद “मायारूपी” सीता माता अग्नि में विलीन हो गई और वास्तविक स्वरूप सीता माता जी अग्नि से पुनः प्रगट हो गई थी और राम जी के सानिध्य पाया था।
रामायण काल के अनुसार सीता जी के तेजपुंज से ही रावण भस्म हो जाता लेकिन अन्य राक्षसों के विनाश की दृष्टि से उचित नही होता अतः सीता माता जी रावण के साथ अपनी प्रति मूर्ति छाया ही भेजी थी।
“जौ लगि करौ निशिचर नासा।
तुम पावक मह करहुँ निवासा।।
वस्तुतः सीता जी व राम जी अभिन्न तत्व है एक ही ब्रम्ह ज्योति सीताराम के रूप में अभिव्यक्त हैं उनका विरह जुदाई कभी संभव नही ….ब्रम्हा से शक्ति कभी अलग नहीं हो सकती है।
रामकथाओं के अंत में पुनः अग्नि परीक्षा को उचित माना और सीता माता जी ने पृथ्वी से सविनय प्रार्थना विनती की …….
“यदि मैं निष्कलंक हूँ तो आप स्वयं प्रगट होकर मुझे अपने अंगों में स्थान दें” तभी अकस्मात पृथ्वी फट गई और भूदेवी सीता माता जी को अपने गोद में बैठाकर धरती में समा गई …..! !
वैशाख शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को “सीता नवमी ” मनाई जाती है मान्यता अनुसार इस दिन रामसीता जी का पूजन विधि विधान के अनुसार करता है व्रत रखता है उसे 16 सोलह महान दानों का फल , पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिलता है।इस दिन माता सीता के मंगलमय नाम “श्री सीताये नमः” और ” श्री सीता रामाय नमः” का नाम उच्चारण करना लाभदायी सिद्ध होता है।
सीता जी के प्रागट्य दिवस पर सीता जी के अस्तित्व के अंतिम चरण वो हर वेदना पर तपकर निखर गई थी और उनकी करुण गाथाओं में अमर कहानी कथाएँ बन गई थी।
शशिकला व्यास
भोपाल मध्यप्रदेश