‘सीख’
‘सीख’
सीख-सीख-सीख हर पल नया तू सीख,
अंदर से सीख, थोड़ा बाहर से सीख।
थोड़ा इससे सीख,और थोड़ा उससे सीख,
सीखे बिना जिन्दगी,
बसर नहीं है होती।
सीखने की कोई भी उमर नहीं है होती।
पेडों से सीख ले तू,पर हित में काम करना,
चट्टानों से सीख, कदम अडिगता से रखना।
फूलों से थोड़ा सीखले कठिनाइयों में हंसना,
बादलों से सीख ले तू, प्रेम में बरसना।
बिन स्वार्थ के भी देखले है प्रीत ऐसी होती,
सीखने की कोई भी उमर नहीं है होती।
पंछियों से सीख ले, सुबह-सबेरे जगना,
सूरज से सीख, अंधकार में प्रकाश भरना।
नदियों से सीख कैसे, निरंतर है बढ़ना,
सीढियों से सीख कैसे, ऊँचाई पर है चढ़ना।
पर पीर दिल में कैसे दया के बीज बोती,
सीखने की कभी कोई, उमर नहीं है होती।