सीएए-एनसीआर-एनपीआर : देशहित नहीं, केवल राजनीतिक हित
किसी भी देश और समाज में तीन तरह का वर्ग रहता है- एक वह जिसे देश में कुछ भी हो, उसे फर्क नहीं पड़ता है. वह ‘मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में’ सिद्धांत को अपने जीवन का ध्येय मानता है, दूसरा वह है जो सिर्फ स्वयं व अपने परिवार के भले-हित की सोचता है, जब प्रत्यक्ष रूप से उसके हित प्रभावित होते हैं तब वह सामाजिक हो जाता है और तीसरा एक वर्ग है जो समाज-देश से निरपेक्ष रूप से सरोकार रखता है लेकिन इस तीसरे वर्ग में भी दो वर्ग हैं- एक वर्ग ऐसा है जो विवेक-तर्क लगाए बगैर किसी भी दिशा में बहता जाता है, और दूसरा वर्ग है जो तर्क-वितर्क के साथ सामाजिक सरोकारों पर अपना रुख रखता है या कुछ करता है. मैं भी तीसरे वर्ग के दूसरे टाइप में से हूं. मेरे सहकर्मी कहते रहते हैं कि क्यूं फालतू परेशान होते रहते हो, लेकिन मैंने जो सामाजिक संवेदनशीलता और तार्किकता पाई है, उसके कारण में तटस्थ रह नहीं पाता हूं. जैसे अभी हाल ही में पूरा देश सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर पूरा उलझ सा गया है. तो मैं भला कैसे तटस्थ रह सकता हूं. देखिए बंधु अब तक लोग महंगाई, बेरोजगारी, अच्छी शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा, महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल को लेकर और देश की बदतर होती जा रही अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता में डूबे हुए थे, लेकिन सरकार की षड्यंत्रकारी नीति के चलते अब लोग नागरिकता को लेकर उलझ गए हैं. सीएए के विरोध में स्कूल-कॉलेज के छात्र, आम नागरिक, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी, न्यायविद सब इसके खिलाफ आवाजें उठा रहे हैं ुलेकिन मोदी सरकार इन्हें देश-विरोधी साबित करने में तुली हुई है. शायद सरकार इन्हें भारतीय ही नहीं मानती है. तभी तो तथाकथित भक्तों के तथाकथित मसीहा मोदीजी ने बाकायदा ट्वीट कर नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में सोशल मीडिया पर एक हैशटैग की शुरुआत की. ‘इंडिया सपोर्ट्स सीएए’ इस हैशटैग के जरिए अब वे यह साबित करने की कोशिश करेंगे कि भारत के बहुसंख्यक लोग सीएए के पक्ष में हैं. अब यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने किस तरह अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाई है. उसकी आईटी सेना कितनी विशालकाय है. अब मोदीजी के आह्वान पर उनके समर्थक सोशल मीडिया पर सीएए पर समर्थन वाले इस हैशटैग को खूब प्रसारित करेंगे और मोदी-शाह मंडली कहेगी कि देखिए करोड़ों लोग उनके साथ हैं. दरअसल बहुमत का यह अलोकतांत्रिक इस्तेमाल भाजपा और इस मौजूदा सरकार की पहचान बन गई है, जिसमें अल्पमत की तार्किक आवाज और सच को दबाया जाता है. बेशक लोकतंत्र में बहुमत का महत्व है लेकिन अल्पमत का भी उतना ही खास स्थान है. अब वैसे खबर है कि भाजपा, आरएसएस के कार्यकर्ता सीएए और एनआरसी के मुद्दों को लेकर घर-घर जाकर लोगों को बरगलाने वाले हैं. मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि अगर वे आपके पास आएं तो उनसे ये सवाल जरूर पूछें जैसे- क्या सीएए से पहले गैरमुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का कोई कानून नहीं था? पहले अगर कोई मुस्लिम शरणार्थी नागरिकता मांगता था तो क्या भारत सरकार को उसकी मांग माननी ही पड़ती थी, सरकार उसे खारिज नहीं कर सकती थी?
अगर सरकार के पास ‘हां’ या ‘ना’ बोलने का अधिकार पहले से था तो कानून में संशोधन की जरूरत क्यों है? क्या अब मुस्लिम शरणार्थी भारत की नागरिकता नहीं मांग सकते? अगर मांगते हैं तो क्या उन्हें नागरिकताा मिलेगी? अब तक कितने गैरमुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता मिली है और बीते 70 सालों में कितने मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता मिली है? शरणार्थियों की भारत में रहने की अवधि 11 साल से घटाकर 5 साल क्यों की? 31 दिसंबर 2014 की कट आफ डेट क्यों रखी? क्या इसके बाद देश में कोई अवैध तरीके से नहीं आया? असम की जनसंख्या 3 करोड़ से कुछ ज्यादा है, वहां एनआरसी प्रक्रिया में 10 साल लगे, 52 हजार लोगों ने काम किया और करीब 1600 करोड़ रुपए खर्च हुए. पूरे भारत की आबादी 135 करोड़ है, ऐसे में इस प्रक्रिया में कितने साल, कितने लोग और कितने करोड़ रुपए लगेंगे? क्या आधार, पासपोर्ट, पैन कार्ड, वोटर आईडी और जन्म प्रमाणपत्र नागरिकता का सबूत नहीं हैं?
नागरिकता के लिए क्या सबूत देने होंगे? अगर अधिकारी या क्लर्क की गलती से नाम या कोई और जानकारी गलत टाइप हो जाए तो क्या किसी की नागरिकता अधर में लटकी रहेगी? इस गलती के लिए अपील कहां जाकर की जाएगी? भारत में आधार कार्ड 5-6 साल, पैन कार्ड 25 साल और पासपोर्ट की व्यवस्था 70 सालों से है, अगर इन्हें भी कोई गलत तरीके से बनवा सकता है तो क्या एनआरसी में कोई फर्जीवाड़ा नहीं हो सकता? सबसे आखिरी और महत्वपूर्ण सवाल 2010 से पहले एनपीआर के बगैर और 2019 से पहले एनआरसी के बगैर भारतीय लोकतंत्र फलफूल रहा था तो अब इन महंगी और बकवासपूर्ण कवायदों की जरूरत किसलिए?
सरकार को भी हैशटैग पर एक-एक कर इन सवालों के जवाब देने चाहिए ताकि विरोध कर रहे हम जैसे मूर्ख लोगों और बरगलाने वाले तत्वों को कोई जवाब तो मिले. इन तमाम मसलों पर प्रधानमंत्री कुछ बोलते हैं तो उनके अन्य सहयोगी कुछ. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि एनपीआर के कुछ तथ्यों का इस्तेमाल एनआरसी में हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता. इस तरह के दुविधापूर्ण बयान देने का क्या अर्थ? मेरे मित्रों, इस सारी कवायद की गहराई में जाएंगे तो पाएंगे कि यह सिर्फ व्यर्थ की कवायद है. इसमें देशहित-वित जैसी कोई बात नहीं है, यह सिर्फ हिंदू-मुस्लिम, देशभक्त-देशद्रोही की बहस खड़ा कर अपना राजनीतिक हित साधना है.
मैं गंभीरता से हर विवादित मुद्दे पर गहराई से अध्ययन करता हूं. इस नाते यह कहना चाहूंगा कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लगभग वैसा ही देश का बंटाधार करने वाला निर्णय है जैसा इस नोटबंदी का था. इन दोनों के दुष्परिणाम भयावह हुए हैं. नोटबंदी से सारा कालाधन सफेद हो गया. सैकड़ों लोगों ने अपनी जान से हाथ धोए, लाखों की नौकरी गई, लाखों रेहड़ी वाले करीब तीन महीने भारी मंदी के शिकार हुए और 30 हजार करोड़ रु पए नए नोट छापने में बर्बाद हुए. हालांकि नोटबंदी ने भाजपा सरकार का ज्यादा नुकसान तो नहीं किया क्योंकि अंधभक्ति में हमने तर्कशक्ति लगाई नहीं और यह पक्का विश्वास कर लिया था कि वह देश के भले के लिए की गई थी. लेकिन अब नागरिक तर्क-वितर्क करने लगे हैं, उत्पीड़ित नागरिकों को भारत की नागरिकता दी जाए लेकिन उसका आधार सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न हो, यह बात भारत के मिजाज से मेल नहीं खाती. उत्पीड़ित सिर्फ तीन पड़ोसी मुस्लिम देशों के ही क्यों, किसी भी पड़ोसी देश के हों, भारत के द्वार उनके लिए खुले होने चाहिए. इसके लिए पहले का कानून ही थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ पर्याप्त था. इसके लिए संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से छेड़छाड़ की जरूरत नहीं थी.
– 12 जनवरी 2020, रविवार
स्वामी विवेकानंद जयंती (युवा दिवस) पर विशेष