सिलसिला ये प्यार का
सिलसिला ये प्यार का
आए तुम ज़िन्दगी में जब से आहिस्ता,
रहा पहले तुमसे इंसानियत का रिश्ता।
छू गई जब मेरी रूह को तुम,
तुमसे रहा है रूहानियत का रिश्ता।
आए न कभी लम्हा तकरार का।
चाहता मैं भी यही था जानेजाँ…
टूटे न कभी सिलसिला ये प्यार का।
आए जब तुम बनकर साया,
दिल ने चैन-ओ-करार पाया।
की बरसात प्रेम वारिश की,
जमकर तुमने प्यार बरसाया।
मौसम खत्म न हो ईश्क-ए-बहार का।
चाहता मैं भी यही था जानेजाँ…
टूटे न कभी सिलसिला ये प्यार का।
बढ़ाई तुमने कभी- कभी बेकरारी,
कभी धड़कने बढ़ाना रखा ज़ारी।
हुए दीदार चकोर को जब चाँद के,
मानो रहमत बरस गई मुझ पर सारी।
रूतबा कम न हो तलवार की धार का।
चाहता मैं भी यही था जानेजाँ…
टूटे न कभी सिलसिला ये प्यार का।
ईश्क में कभी दिल को सिया,
कभी दफन प्रेमलोक में किया।
किया जब तुमने कत्ल निगाहों से,
देखकर तुमको जी भर के जिया।
बखूब चखा मज़ा ईश्क के बुखार का।
चाहता मैं भी यही था जानेजाँ…
टूटे न कभी सिलसिला ये प्यार का।
क्यों प्रेम का सुन्दर महल सजाया?
क्यों जान बूझकर मुझको रुलाया?
बेशक हो गई युगों-युगों तक तुम मेरी,
पर मैं कभी तुम्हारा न बन पाया।
कैसे उतारेगा कर्ज ‘भारती’ इस उपकार का?
चाहता मैं भी यही था जानेजाँ…
टूटे न कभी सिलसिला ये प्यार का।
सुशील भारती, नित्थर, कुल्लू, (हि.प्र.)