सिलवटें
रोज बिस्तर पर जाते ही,
पड़ जाती हैं सिलवटें,
रोज सलीकेदार बिस्तर पे,
मेरी करनी के निशां बनते हैं…
उठते ही रोज सिलवटें,
बहुत कुछ मुझे बताती हैं,
मेरे कर्मो को वो नित्य ही,
नये रूप मे दिखाती हैं…
हर सिलवट आकार से,
बहुत कुछ कहा करती है,
खुशी मे कुछ लंबी तो,
विषाद मे छोटी बनती है…
हताशा और नाकामी मे,
गड्डमगड्डा ये हो जाती हैं,
तो कभी चिंतन मे खोई,
छोटे से गढ्ढे सी बन जाती हैं…
कभी मुस्कुराती हैं ये,
तो कभी अनमनी सी,
कभी अहं का अट्हास,
तो कभी बहुत चुप सी…
कभी भय व्याप्त किसी,
अंर्तद्वंद का प्रलाप लिये,
तो कभी खो डालने का,
सूना सा संताप लिये…
सिलवटों का पुराना,
हमसे ये सिलसिला है,
शायद हमें तो ये,
जन्म से ही मिला है…
हमारी हर हरकत में,
हर हाल एक सिलवट है,
जब तक हरकत है,
तब तक ही सिलवट है…
हर सिलवट की अपनी,
एक अलग कहानी है,
जब तक जिंदा हैं,
साथ इनकी भी रवानी है…
सोचता हूँ जीवन तक ही,
तो ये सारी सिलवटें हैं,
उसके बाद..केवल सपाट!!!!
सबके सलीकेदार बिस्तरे हैं….
©विवेक ‘वारिद’*