सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।।
सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।।
कैसे जानें आ पहुँचा है, एक नया फिर साल।
सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।।
है वही गरीबी लाचारी,
है इधर उधर मारा नारी,
भूखी प्यासी व्याकुल जनता,
अब भी फिरती खुद से हारी।
आम आदमी पस्त हुआ है, नेता मालामाल
सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।
कुछ अब भी भूखे रहते हैं,
कुछ फुटपाथों पर सोते हैं
इनके जीवन के स्वप्न सभी,
आँखों के भीतर रोते हैं
कोई आरक्षण भी इनका, बदल न पाया हाल
सिर्फ कैलेंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।
वह कृषक स्वयं से हारा है,
वह श्रमिक वक्त का मारा है
सब कुछ वैसे का वैसा है,
बस परिवर्तन का नारा है।।
नये कलेवर में आया है, वही पुराना माल।
सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।।
नारी का मान न होता है,
बस चीरहरण ही होता है
बह वस्तु भोग की है अब भी,
उसका गुणगान न होता है
बेटी होना तो अब भी लगता, है जी का जंजाल।
सिर्फ कलैंडर ही बलला है, किंतु न बदला हाल।
है दिशाहीन नवयुवक सभी,
जीवन का साधन नहीं अभी
क्या रोजगार मिल पाएगा,
सम्मुख रहता है प्रश्न तभी
क्या भविष्य होगा अपना जब युवाशक्ति बदहाल।
सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।
वह नारे सदा लगाते हैं,
बस जनता को भरमाते हैं
भारत के टुकड़े हों कह कर,
वह रोज सड़क पर आते हैं
आजादी का शोर मचाकर, करते रोज बवाल।
सिर्फ कलैंडर ही बदला है, किंतु न बदला हाल।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
03.01.2020