साहित्य समाज का दर्पण है
” साहित्य समाज का दर्पण है ”
——————-
लेखन ऐसा चाहिए,जिसमें हो ईमान |
सद्कर्म और मर्म ही,हो जिसमें भगवान ||
—————————
जिस प्रकार आत्मा और परमात्मा का बिम्ब एक दूसरे को प्रतिबिम्बित करता है , उसी प्रकार साहित्य एवं समाज भी एक दूसरे को प्रतिबिम्बित करते हैं | लेखक एवं साहित्यकार सदा से ही अपनी लेखनी के माध्यम से समाज की प्रतिष्ठा और नीति-नियम के अनुसार अपना पावन कर्तव्य बड़ी कर्मठता से निभाते रहे हैं | इतिहास गवाह है कि साहित्यकारों के लेखन ने , न केवल यूरोपीय पुनर्जागरण में अपनी महत्वपूर्ण और सशक्त भूमिका निभाई है वरन् भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी | इसके अतिरिक्त समाज और राष्ट्र-निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान देते हुए नवाचार के द्वारा विकास का एक नया अध्याय भी लिखा | आज भी इनकी प्रासंगिकता बनी हुई है | वर्तमान में अनेक प्रकार की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक-ऐतिहासिक और सामरिक समस्याऐं वैश्विक समुदाय के सामने उपस्थित हैं जैसे– आतंकवाद , नक्सलवाद, मादक द्रव्यों की तस्करी , भ्रष्टाचार, भ्रूण हत्या, बलात्कार , गरीबी , बेरोजगारी , भूखमरी , साम्प्रदायिकता , ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण , एलनीनो प्रभाव ,सीमा पार घुसपैठ , अवैध व्यापार इत्यादि-इत्यादि | इस प्रकार की अनेक समस्याओं को लेखक अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से निर्भीक और स्वतंत्र होकर समाज के सामने उपस्थित करता है , ताकि देश के जिम्मेदार नागरिकों में जन-जागरूकता और सतर्कता का प्रसार हो ,और वे अपनी जिम्मेदारी को बखूबी समझें |
साहित्य क्या है ? :~ साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति “सहित” शब्द से हुई है ,जिसका शाब्दिक अर्थ है – साथ-साथ हित अथवा कल्याण | अर्थात् साहित्य वह रचनात्मक विधा है ,जिसमें लोकहित की भावना का समावेश रहता है | दूसरे शब्दों में — साहित्य – शब्द , अर्थ और मानवीय भावों की वह त्रिवेणी है ,जो कि सतत् तरंगित प्रवाहित होती रहती है | साहित्य विचारों की वह अभिव्यक्ति है ,जो कि समाज का यथार्थवादी दृष्टिकोण उजागर करती है | यह दृष्टिकोण त्रिकालिक स्वरूप में होता है ,क्यों कि साहित्य न केवल भूतकाल एवं वर्तमान काल के मुद्दों एवं विषयों की सार्थक अभिव्यक्ति है, अपितु यह वर्तमान में हो रहे परिवर्तन को समाहित करते हुए समाज के गुण-दोषों को समाज के ही सम्मुख रखता है ,ताकि समाज को समाज का वास्तविक प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर हो सके | क्या सही है ? क्या गलत है ? यह निर्णय साहित्य , समाज का दर्पण बनकर दिखलाता है | साहित्य का कोई निश्चित स्वरूप नहीं है | यह तो विविध रूपों में समाज के समक्ष प्रकट होता है | यदि साहित्य की तुलना जल से की जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | क्यों कि जिस प्रकार पानी का कोई रंग नहीं होता ,किन्तु जब वह किसी भी तरल के साथ मिलता है तो वह उसी स्वरूप में समावेशित हो जाता है ,उसी प्रकार साहित्य भी विविध विचारों की भावाभिव्यक्ति के अनुरूप समावेशित होकर उद्घाटित होता है | अत : हम कह सकते हैं कि साहित्य का मर्म ही इसका चरम है | यही चरम समाज के लिए उपयोगी है |
व्यक्ति-समाज-साहित्य का अंतर्सम्बंध : ~
व्यक्ति एक सामाजिक प्राणि है , जो की समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विचारशील , ज्ञानशील और नैतिकता के सार्वभौमिक नियमों से सदैव जकड़ा रहता है | यही नीतिमीमांसीय नियम व्यक्ति में संवेदनशीलता , सामाजिकता , मानवता और उच्चतम आदर्शों को निर्मित करते हैं | चूँकि साहित्यकार भी एक व्यक्ति है | अत : वह सद्गुणों की छाया में समाज के हित और अहित को ध्यान में रखते हुए साहित्य लेखन करता है , जो कि समाज का ही यथार्थवादी शाब्दिक-चित्रण होता है | समाज के नागरिकों में उत्तरदायित्व की भावनात्मक अभिव्यक्ति और शक्ति को उजागर करने तथा उसके क्रियान्वयन हेतु साहित्य एवं साहित्यकार एक प्रतिबिम्ब के रूप में होते हैं | यही कारण है कि सुयोग्य नागरिक अपनी जवाबदेहता और सक्षमता को समझकर अपने मूल अधिकारों की रक्षा करने और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए अपना योगदान सुनिश्चित करते हैं | जब भी कोई सामाजिक या राष्ट्र से संबंधित समस्या उजागर होती है तो लेखक ही अपनी तलवार रूपी लेखनी को हथियार बना कर विजय को सुनिश्चित करते हैं | अभी हाल ही में देखा गया कि छत्तीशगढ़ में सुकमा नक्सलवादी हमले के पश्चात साहित्यकारों की वेदना और वीररसात्मक अभिव्यक्ति ने उनकी लेखनी को त्वरित गति प्रदान की ताकि समाज को उसका दर्पण दिखा दिया जाए | यही नहीं भारतीय कला, इतिहास ,संस्कार एवं संस्कृति को जीवित रखने तथा उनको पुनर्जीवित करने में भी अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन करते हैं | ये अपनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति के माध्यम से सूक्ष्मतम एवं गूढ़तम स्वरूप में समस्या का पोस्टमार्टम करते हैं ,ताकि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से मानवता और मानवीय सद्गुणों और नैतिकता की पुनर्स्थापना की जा सके |
साहित्य समाज का दर्पण है : ~ साहित्यकार , समाज का चिंतनशील ,चेतन और जागरूक प्राणि होता है , जिसके साहित्य में व्यक्ति एवं समाज के कर्म का मर्म प्रतिबिम्बित होता है | “साहित्य समाज का दर्पण है ” – इसका तात्पर्य यह है कि , साहित्य, समाज के उच्चतम आदर्शों, विचारों और कार्यों को आत्मसात् करते हुए समाज का वास्तविक शब्द-चित्रण करता है | जबकि समाज में व्याप्त अवांछनीय कुरीतियों , कुविचारों और कुप्रथाओं को उद्घाटित करते हुए समाज को यथेष्ट और अपेक्षित दिशाबोध करवाता है | यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो यह सत्य उजागर होता है कि प्राचीनतम समाज में व्याप्त कुरीतियाँ जैसे – सती प्रथा , डाकन प्रथा , बाल विवाह , देवदासी प्रथा ,डावरिया प्रथा इत्यादि अमानवीय कुरीतियों को व्यक्ति और समाज से दूर करने में साहित्य का ही योगदान रहा है | साहित्य ने दर्पण बनकर व्यक्ति और समाज को उनका वास्तविक स्वरूप दिखलाया | इसी तरह राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने में भी साहित्य ने समाज के लिए एक अहम भूमिका निभाई है |
निष्कर्ष :~ व्यक्ति ,साहित्यकार, समाज और साहित्य का आपस में अन्योन्याश्रय संबंध पाया जाता है ,जो कि एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं | यदि व्यक्ति सद्गुणी होगा ,तो साहित्यकार सद्गुणी होगा तथा साहित्यकार सद्गुणी होगा तो साहित्य भी उच्चतम आदर्शों से पूर्ण होगा | अत: साहित्य की पूर्णता समाज के लिए एक दर्पण का रूप होगा , जिसमें समाज का वास्तविक स्वरूप सदैव दिखाई देगा | अत : जरूरी है कि व्यक्ति को सद्गुणी होना चाहिए तथा साहित्यकार को सद्गुणों के साथ-साथ उपयोगितावादी दृष्टिकोण को आत्मसात् करना चाहिए ताकि साहित्य में उच्चतम आदर्शों का समावेश होने के साथ-साथ ” लोकसंग्रह” की भावना की भी पराकाष्ठा हो ताकि साहित्यकार व्यक्तिगत हित को त्यागकर लोकहित में कार्य कर सके और समाज को वास्तविक स्वरूप साहित्य में देखने को मिले |
——————————
— डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”