साहित्य में सकारात्मक पक्ष के स्थान पर नकारात्मक पक्ष
वर्तमान परिवेश में साहित्य में सकारात्मक पक्ष के स्थान पर नकारात्मक पक्ष को अधिक महत्व देने की प्रासंगिकता ।
साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है जैसा समाज में घटित होता है साहित्य उसे प्रतिबिंबित करता है और किसी विषय से सम्बन्धित लोगों की सोच कैसी है साहित्य में चित्रित होती है पर साहित्य में सकारात्मकता और नकारात्मकता दोनों पक्ष संतुलित स्थिति में दृष्टिगोचर नहीं होते ।
नकारात्मकता सकारात्मकता पर हावी हुई प्रतीत होती है जबकि हमारी संस्कृति सकारात्मक होने के कारण सकारात्मक सोच विकसित करने की ओर प्रेरित करती है जैसे नारी चित्रण में देखते है कि नर ही नारी पर हावी होता नजर आता है साथ ही पुरूष संबंधी भी नारी शोषण में अहं भूमिका निभाते है क्योंकि जो पुरातन सोच अब तक विकसित है उसके आगे की पुरूष प्रधान समाज सोच नहीं पाता । यही नकारात्मक प्रवृत्ति है जो साहित्य में दिखाई देती है ।जैसे कल हमने “नीलू ” कहानी में बहुत सी बातें ऐसी पायी जो यथार्थ स्थिति का वर्णन करती है पर साहित्य को नकारात्मक सोच प्रदान करती है ।
जब हम नारी उत्थान की बात करते है और नारी द्वारा समाज को निर्देशित करने की बात करते है तो यहाँ सकारात्मक सोच स्पष्ट रूप से दिखाई देती है । जैसे ”
एक नहीं दो -दो मात्राएं ,
नर पर भारी नारी ।
यहाँ नारी सकारात्मक सोच की स्पष्ट झलक दिखाई देती है