साहित्य में राष्ट्रीय चेतना
स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम की शुरुआत के साथ ही राष्ट्रीय चेतना के स्वर साहित्यकारों की लेखनी में मुखरित होने लगे थे । होते भी क्यों न । सामाजिक परिवेश साहित्यकार का प्राण होता है जिसकी आहट श्वांस की हर धड़कन में मिलती है । उस समय की समाजिक पृष्ठभूमि में उसी ओजस्वी स्फूर्ति का संचार हो रहा था जो परतन्त्रता की वेणियों को काटने में अपनी महतीय भूमिका अदा कर सकती थी । हिन्दी कवि एवं लेखक भी इस नवजागरण से प्रभावित हो रहे थे परिणामस्वरूप देश प्रेम , राष्ट्रीय भक्ति के गीतों का गूँजना स्वभाविक था ।
राष्ट्रीय चेतना की यह धारा आदिकाल से प्रवाहित होती हुई आज भी संचरिय हो रही है चारण कवि राज्याश्रित रहकर जन जीवन में राष्ट्रीयता से आ़तप्रोत भावों का संचार करते थे । भक्ति काल भक्ति की ओजमयी सरिता तो प्रवाहित हुई लेकिन तुलसी जैसे कवियों ने रामराज्य की संकल्पना को संकल्पित किया । रीतिकाल में रीतिबध्द काव्य रचा गया लेकिन भूषण जैसे कवियों की लेखनी की धार से छत्रसाल और शिवाजी के स्वर बुलंद हुए ।