साहित्य में अवसरवाद
शीर्षक – साहित्य में अवसरवाद
विधा – आलेख
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन – 332027
मो. 9001321438
साहित्य में अनेक वाद-विवाद हुये उनके निष्कर्ष से साहित्य में अनेक नये मानदंड भी स्थापित हुए जो साहित्य के स्वरूप को एक निश्चित दृष्टिकोण भी देते रहे हैं। न जाने कितने साहित्यिक मनिषियों ने इस अनवरत चलने वाले साहित्य-यज्ञ में अपनी लेखनी से हविष्य देकर साहित्य की अखंड ज्ञान अग्नि को प्रज्वलित रखा। उन सभी ज्ञात अज्ञात कवीश्वरों को नमन करता हूँ। किन्तु सवाल ये है कि क्या कभी साहित्य में अवसरवाद जैसी परम्परा रही नहीं?
या जो अवसरवादी शैली या कवि थे उनकों कभी पहचाना ही नहीं गया या उनको अवसरवादी कहने में हिचक या डर है।
अवसरवाद जैसी धारा राजनीति में चल गई और साहित्य में कभी आई नहीं ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं बल्कि राजनीति से आगे चलता है। साहित्य में अवसरवाद राजनीति से पहले आया साहित्येतिहासकार इसे न तो निश्चित कर सके और न ही इसका नामकरण कर सके । साहित्य में अवसरवाद को स्वीकार न करना इसकी प्रवृत्तियों को न खोजना इतिहासकारों की सबसे बड़ी भूल है। साहित्यिक अवसरवाद के बीज हमें हिंदी के आदिकालीन साहित्य में मिल जाते है।
साहित्यिक अवसरवाद राजनीति के अवसरवाद से ज्यादा भिन्न नहीं है। राजनीतिक अवसरवादी लोग विकासवादी होने का ढोंग रचते हैं किन्तु साहित्यिक अवसरवादी अपना ढिंढोरा पीटने के साथ-साथ यश और धन दोनों प्राप्त करना चाहते है। राजनीति का तो ये सामान्य लक्षण है। अवसरवाद साहित्य में किस प्रकार पहचाना जाये इसके क्या लक्षण है तथा इसका परिणाम क्या होता है इसका निर्धारण आज तक किसी ने नहीं किया।
साहित्य में अवसरवाद की पहचान जटिल नहीं है। अवसरवादी साहित्य में वो सम्पूर्ण साहित्य आ जाता है जिसकी रचना कवि ने स्वच्छंद रूप से न करके अपनी उदरपूर्ति के आर्थिक साधनों को प्राप्त करने लिए किसी का आश्रय प्राप्त किया। अपने आश्रयदाता की मनोवृत्तियों को दृष्टिगत कर खुशामदी के लिए काव्य रचा। जिन रचनाकारों ने साहित्य को अवसर के रूप में देखकर जीवन में सुख-सुविधा जुटाने का उद्योग किया वे सभी साहित्यकार अवसरवादी साहित्यकार है। ऐसा नहीं है कि अवसरवादी होना साहित्यकार को शोभा नहीं देता; कालगत और देशकालीन परिस्थिति साहित्य और साहित्यकार दोनों को निचोड़ देती है। एक सीमा तक उदरवृत्ति के लिए साहित्य का सहारा लेना एकपक्षीय सत्य है किन्तु जीवनभर इसी उद्देश्य को अपनाये रहना साहित्य को पतन की ओर ले जाना है।
साहित्य अवसरवाद के प्रमुख लक्षण : –
१ स्वच्छंद प्रवृत्तियों से दूर रहना।
२ आश्रयदाता की झूठी प्रशंसा।
३ जनता की चित्तवृत्तियों को दूर रखना।
४ व्यक्तिनिष्ठ साहित्य रचना।
५ साहित्य रचना को साध्य न मानना।
६ साहित्य को अर्थ प्राप्ति के हेतु मानना।
७ निकृष्ट विषयों का चयन।
८ विचारों की प्रधानता।
९ भावों की बजाय शब्दक्रीड़ा।
१० मार्मिक स्थलों की उपेक्षा।
११ परानुभूति का अवलम्बन।
१२ अप्रासंगिक विषयवस्तु।
१३ कालजयी विषयवस्तु न होना।
साहित्य में अवसरवाद कलात्मकता की ओट में छिपा है। आदिकाल में जहाँ देशकालीन परिस्थितियों से बँधकर कवि समाज वीरोचित रचना से उत्साह भर रहा था वहीं शांतिकाल में भी वे उसी प्रवृत्ति का निर्वाह कर रहे थे युद्धकाल न होते हुए भी काल्पनिक युद्ध की घोषणाओं से राजा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर अपने पर राजकृपा का अवसर नहीं गँवाना चाहते। राजा के इर्दगिर्द ही मंडराना, राज मनोवृत्ति को साहित्य के पोषित कर जनता पर थोपना उस समय की कवि मनोवृत्ति थी। जन साहित्य किंचितमात्र रचा गया। जिन कवियों ने आश्रय ग्रहण नहीं किया या आश्रय नहीं मिला वो लोक जीवन में स्वतंत्र काव्य रचना करते और जनता का मनोरंजन करते। आश्रयदाता न मिलने से उनका साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। कवियों की जो रचनाएँ अवसरवादी नहीं है उनकों ही साहित्य इतिहास में उचित सम्मान मिला है।
भक्तिकाल का साहित्य पूर्णतः शुद्ध साहित्य है। भक्तिकाल में अवसरवादी प्रवृत्तियों का ठहराव सा है। जितना भी साहित्य रचा गया वो लौकिक जीवन के निकट का साहित्य है। स्वच्छंद प्रवृत्ति का दर्शन भी सबसे पहले भक्तिकालीन साहित्य में दिखता है। भक्त कवियों की रचनाएं किसी प्रतिक्रिया के प्रति प्रदर्शन नहीं है। सहज प्रतिक्रिया का परिणाम और लोक जीवन में रहकर रचा जाने से ही इस काल का साहित्य स्वर्णयुगीन साहित्य है। अवसरवाद के लिए अवकाश नहीं था ; ऐसा बिल्कुल नहीं है। आश्रयदाता तो उस समय भी थे पर इस अवसरवाद पर जनरूचि का पहरा था। इसी कारण अवसरवादी लोग साहित्य में पैर नहीं पसार सके जितना उस समय की राजव्यवस्था में फैला था।
भक्तिकाल की अवसरवादिता जो ठहरी हुई थी उसे पूर्ण विस्तार रीतिकाल में मिला। मुगलकाल में जब शांति स्थापित हो गई तो युद्ध के बंधन ढीलें पड़ गये भक्ति भी ह्रासोन्मुखता की तरफ बढ़ने लगी। केन्द्रीय शासन व्यवस्था स्थापित होने से रियासतों के आपसी बेवजह होने वाले युद्ध, सीमा विवाद भी थम गये। राजकार्य सीमित हो गया ऐसे में भोगविलास की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। फलतः भोगवादी प्रतिक्रिया ने कवियों को एक बार फिर अवसर दिया। इस बार अवसरवाद ने अपनी जड़े सामंतवाद के साथ-साथ समाज के उच्च मध्यमवर्ग तक जमा ली। जो कवि जितनी रसात्मकता के साथ जितने नग्न और उभरे मांसल चित्र खींच सका वो उतना ही महान समझा गया।
घनानंद,बोधा,ठाकुर,आलम इत्यादि रीतिमुक्त कवि अवसरवादी प्रवृत्तियों से निर्लिप्त विकसित स्वतंत्र चेतना के वाहक है। इनका काव्य व्यक्तिनिष्ठ होकर भी अवसरवाद की छाया से कोसों दूर है। जिस व्यक्तिनिष्ठ काव्य में भावों की समष्टि के विराट रूप मौजूद हो वो काव्य साहित्य का अक्षय भण्डार है। रीतिबद्ध कवियों की वहीं रचनाएँ इतिहास में जगह और प्रसिद्धि पा सकी जो अवसरवादी छाया के प्रभाव से मुक्त है। जो रचना राजाओं को प्रसन्न करने लिए लिखी गई; वो रचना साहित्य-सागर में उनके ही जीवनकाल में डूब गई। पाण्डित्य प्रदर्शन रचनाओं का नामोनिशान मिट गया। ऐसे कवियों के नाम भी लुप्त है जिन्होंने अपनी प्रतिभा धन में डुबो दी। केशव,चिंतामणि, मतिराम, देव, इत्यादि सदृश कवियों की अवसरवादिता ने साहित्य में आचार्यों के मण्डल पैदा नहीं होने दिये। रीतिबद्ध कवि अवसरवाद की उपजाऊ जमीन से फूटे अंकुर थे जिनसे एक ही फसल ली जा सकी। अगली फसल के लिए इन अंकुरों से प्राप्त बीज किसी काम के नहीं थे। साहित्य की अगली पीढ़ी आधुनिक काल में रीतिमुक्त कवियों की कविताओं से उत्पन्न हुई।
आधुनिक काल में अवसरवाद के नये रूप सामने आये। आधुनिककाल का अवसरवाद भौतिकवाद की खोखली नैतिकता से जुड़ा है। आधुनिक काल की अवसरवादी प्रवृत्ति के सम्बन्ध में कुछ कहना गलत तो नहीं है लेकिन खतरा अवश्य है। जो कवि अभी साहित्य यात्रा पूरी कर चुके उनके अवसरवादी प्रवृत्ति पर कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी उनका पूरा मूल्यांकन नहीं हो पाया।
हाँ! आजकल के नवोदित रचनाकार और प्रतिष्ठित कवि दोनों भंयकर अवसरवादी है। प्रतिष्ठित तो मार्ग से हटना नहीं चाहते। उनको सरकारें पत्र-पत्रिकाएँ मोटा पैसा देती है वो इस अवसर को नवोदित रचनाकारों से साझा करना अपमान सझते है।
और नवोदित रचनाकार बासी विषयों पर रचना का मोह रखते है। जयंती, दिवस,जन्म, सामयिक घटनाओं पर ज्यादा रचना करते है। सामयिक घटनाएँ कालांतर में अप्रासंगिक हो जाती है; तो उन विषयों की रचनाओं का क्या साहित्य को क्या लाभ?
दैनिक पत्रों,साप्ताहिक पत्रों, राष्ट्रीय मासिक पत्रिकाओं में अवसरवादी रचनाएँ छप रही है। साहित्य सागर में इन क्षुद्र रचनाओं और रचनाकारों का कहाँ अस्तित्व होगा! जब मैं कभी-कभी साहित्यिक भावनाओं में बहकर नवोदित रचनाकारों को कह देता हूँ कि जयंती, दिवस,जन्म,बधाई, सामयिक घटनाओं पर रची गई कविताओं का क्या भविष्य हैं तो वे बिदक जाते है और भला-बुरा कहने लग जाते है।