साहित्य चेतना मंच की मुहीम घर-घर ओमप्रकाश वाल्मीकि
दलित साहित्य की समझ ही ओमप्रकाश वाल्मीकि को पढ़ने के बाद मिली और यह मेरा सौभाग्य ही रहा कि मुझे वाल्मीकि सर से रूबरू होने का भी सुअवसर मिला। हिंदी पट्टी में दलित साहित्य को स्थापित करने का मुख्य श्रेय ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को ही जाता है। आज से दस वर्ष पूर्व 17 नवम्बर 2013 को वाल्मीकि जी हम सभी को छोड़ दूसरी दुनिया में प्रस्थान कर गये। ये वही दूसरी दुनिया है जिसको वे कहते थे-
स्वीकार्य नहीं मुझे जाना
मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में
वहाँ भी तुम पहचानोगे
मुझे मेरी जाति से ही।
जूठन जैसी अमर कृति देकर उन्होंने हम सभी को कृतार्थ किया, कृतार्थ इसलिए क्योंकि जूठन के बाद ही समाज जातिवाद जैसे समाज के कटु सत्य से रूबरू हुआ, इसके बाद या इसके समकक्ष आत्म कृतियों पर जूठन की छाप देखी जा सकती है।
अब बात उठती है कि साहित्यकार के जाने के बाद उनके आगे के काम को पूरा करने का बीड़ा कौन उठायें? या उसने जो काम अपनी तमाम उम्र के संघर्ष में किया उसके बारे में समाज को कौन बताये? क्योंकि पाठक सिर्फ़ अधिकतर पुस्तक पढ़ने तक ही सीमित रहता है बाकी लेखक के सपनों या भावी जीवन की योजनाओं से उसका कोई सरोकार नहीं होता। इतना समय आज के समय में आख़िर किसके पास ठहरा।
फिर भी इस भागमभाग भरे जीवन में यदि कोई पाठक किसी लेखक को पढ़ने के साथ उसके जाने के बाद उसे आमजन तक पहुँचाने के लिए तन-मन-धन से लेखक के काम को प्रसारित करने का निःस्वार्थ कार्य करते हैं।
दलित साहित्य के आधारशिला रखने वाले साहित्यकारों में ओमप्रकाश वाल्मीकि के नाम और काम से विश्वभर के पाठक रूबरू हैं। उनके साहित्य को घर-घर तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के एक क्रांतिकारी युवा लेखक व समीक्षक साहित्य चेतना मंच, सहारनपुर के अध्यक्ष डॉ. नरेंद्र वाल्मीकि ने। इस कार्य को करने के लिए उनकी लगन और मेहनत देखते ही बनती है। उनकी स्मारिका “घर-घर ओमप्रकाश वाल्मीकि” का कलेवर और इसमें संग्रहित-संकलित सामग्री की महत्ता इसे पढ़ने के बाद ही पाठक समझ सकता है। नरेंद्र जी ने इस स्मारिका का जो नाम दिया है वह दलित विचारधारा को न सिर्फ़ पल्लवित और पुष्पित करेगा बल्कि एक आधार भी प्रदान करेगा। किस प्रकार अपने पसंद के लेखक को जन-जन तक के घर तक पहुँचाते हुए उसे लोगों के दिल-दिमाग में बसाया जाये, यह बात यदि सीखनी हो तो युवा क्रांतिकारी साथी नरेंद्र जी से सीखा जा सकता है। उन्होंने इस स्मारिका के दो संस्करणों को प्रकाशित कर दलित साहित्य में अपनी एक दखल प्रस्तुत की है।
उल्लेखनीय है कि साहित्य चेतना मंच, सहारनपुर द्वारा ही पिछले चार साल से ओमप्रकाश वाल्मीकि के नाम से एक स्मृति पुरस्कार भी देश के साहित्यकारों को उनके दलित साहित्यिक योगदान को देखते हुए प्रदान किया जाता है। अपने आप में यह एक बड़ा काम है। यह स्मारिका केवल स्मारिका मात्र नहीं है, बल्कि यह उन तमाम पाठकों के लिए एक सबक सरीखा भी है जो जीते जी तो लेखक का अपने स्तर से स्वार्थ सिद्ध कराते ही हैं और उनके मरणोपरांत भी उनके नाम का अपने लाभ के लिए फ़ायदा उठाते हैं। लेकिन जब लेखक को (जीते जी या उसके बाद) पाठक की ज़रूरत होती है तब वही लोग/पाठक ख़ुद को दूर कर लेते हैं या दूरी बना लेते हैं। इस संदर्भ में तो शोधार्थियों की हालत तो और भी दयनीय है।
इस साहित्यिक स्मारिका में ओमप्रकाश वाल्मीकि के संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी अलग-अलग कृतियों के अंश संपादित किए गए हैं। जिनमें आत्मकथा, कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाओं के महत्वपूर्ण अंश संग्रहित हैं।
इतना ही नहीं पुस्तक रूप में संपादित इन स्मारिकाओं में डॉ. भीमराव अंबेडकर, नेल्सन मंडेला, सावित्रीबाई फुले आदि महान विभूतियों की जागरूक करने वाली सूक्तियों को भी स्थान दिया गया है। कहने का मतलब है कि पृष्ठ के पूरे हिस्से का भरपूर प्रयोग किया है संपादक नरेंद्र जी ने। ओमप्रकाश वाल्मीकि पर अलग-अलग पाठकों और लेखकों के विचारों को भी इसमें स्थान दिया गया है, जो इसकी महत्ता को और बढ़ा देता है।
अंत में बस यही कि इस महत्वपूर्ण कार्य को चिह्नित किया जाना चाहिए, एक अलग पहचान इस काम को अवश्य मिलेगी और इसके योग्य भी यह काम डॉ. नरेंद्र वाल्मीकि को साधुवाद और हार्दिक मंगल कामनाएँ कि उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे प्रबुद्ध साहित्यकार के काम को जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प लिया है। साथ ही उनकी पूरी टीम को भी हार्दिक बधाई जिन्होंने इस कार्य को पूर्ण करने में अपनी-अपनी महती भूमिका निभाई हैं। आशा ही नहीं पूरा विश्वास भी है कि साहित्य चेतना मंच द्वारा यह मुहीम आगे भी इसी प्रकार चलती रहेगी। ढेर सारी बधाइयों के साथ आभार।
इस स्मारिका के संपादक महोदय मेरे मित्र भाई डॉ. नरेंद्र वाल्मीकि के इस काम को हाईलाइट करते हुए, ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की ये पंक्तियाँ उनको समर्पित-
वे भयभीत हैं
इतने
कि देखते ही कोई किताब
मेरे हाथों में
हो जाते हैं चौकन्ने
बजने लगता है खतरे का सायरन
उनके मस्तिष्क और सीने में
करने लगते हैं एलान
गोलबंद होने का. …….
खामोशी मुझे भयभीत नहीं करती
मैं चाहता हूँ
शब्द चुप्पी तोड़ें
सच को सच
झूठ को झूठ कहें।
इस कविता को चरितार्थ करती हैं यह स्मारिका।
समीक्षक
डॉ. राम भरोसे
मो. 9045602061