सामाजिक समस्याओं में अंतर
समस्या जीवन का अभिन्न अंग है। कुछ पाना है, कुछ करना है…सांस तक लेते रहना है तो भी कोई ना कोई समस्या मुँह बाये तैयार रहती है। हाँ, वीडियो गेम के लेवल की तरह कोई समस्या आसानी से निपट जाती है और कोई समस्या कितने ही संसाधन और समय व्यर्थ करवाती है। कुछ बड़ी समस्याएं जटिल होती हैं और सामाजिक परतों में अंदर तक फैली होती हैं। इन समस्याओं में ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपराध, भेदभाव, बाल शोषण, अशिक्षा, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण आदि शामिल हैं। बचपन से इन समस्याओं के बारे में पढ़ाया जाता है और हर रोज़ इनसे जुड़े पहलुओं पर दुनियाभर में ख़बरें, वार्ता होती रहती हैं। एक समय बाद समाज इन समस्याओं का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि अगर कोई बड़ी खबर ना हो तो इनकी तरफ ध्यान नहीं जाता। ये बातें सामने होकर भी अनदेखी सी होने लगती हैं। सरकार और लोगो की जागरूकता से स्थिति बेहतर हो सकती है पर पूरी तरह ठीक होना असंभव है। वहीं दूसरी तरफ कुछ मुद्दे छोटे स्तर, छोटे क्षेत्र-लोगों और कम समय वाले होते हैं।
कुछ नये को सामान्य से बहुत अधिक प्रतिक्रिया मिलती है इसलिए आम जनता और सभी तरह का मीडिया 1 दिन, 2 दिन या कुछ हफ़्तों तक उस खबर को प्राथमिकता से देखते-दिखाते हैं। इसी क्रम में कभी-कभार किसी घटना पर जनता के बड़े हिस्से की नकारात्मक प्रतिक्रिया आती है और देश-दुनियाभर में प्रदर्शन, मांगें, विरोध और यहाँ तक की हिंसा भी हो जाती है। किसी के लिए छोटी सी बात किसी अन्य समूह के लिए उनकी पहचान पर सवाल या अपमान की तरह देखी जाती है। अगर ध्यान दें तो ये “छोटी” बातें उन बड़े मुद्दों का ही वेरिएशन होती हैं जो हम अनदेखा कर देते हैं। ये कुछ ऐसा है जैसे किसी फिल्म की थीम प्रेम कहानी, एक्शन, एनिमेशन या यात्रा वृतांत हो सकती है पर दर्शक उस फिल्म को इन थीम के वेरिएशन के लिए देखने जाते हैं यानी इस प्रेम कहानी में क्या नया हुआ, नयी कलाकार मण्डली कैसे साथ आयी। नयी चीज़ का “नॉवल्टी” होना कुछ समय के लिए जिज्ञासा जगाता है और जब लोग बात से ऊब जाते हैं तो उसकी जगह ताज़ी बातें ले लेती हैं।
ऊपर समझाया गया संदर्भ बिना जाने, एक बात लोग अक्सर कहते हैं कि देश में जघन्य अपराध, ग़रीबी जैसे मुद्दों पर तो कुछ नहीं होता! उनपर किसी को कोई धरना, विरोध प्रदर्शन आदि नहीं करते नहीं देखा…पर देखो इन नासमझ लोगों को जो छोटी बात या ज़रा से स्थानीय मुद्दे पर तिल का ताड़ बना रहे हैं। पहली बात, बिना उस पक्ष की पूरी बात जाने एकतरफा नरेटिव पर कभी प्रतिक्रिया ना दें। मानव के सामने चुनौती रहे हज़ारों-लाखों वर्षों वाले मुद्दों की तुलना 4-6 दिन की अस्थाई बात से ना करें। ये एक दुखद सच्चाई है कि अन्याय, बुराई कम किये जा सकते हैं पूरी तरह ख़त्म नहीं हो सकते। कितनी आसानी से कह दिया “कोई कुछ नहीं करता!” जिन बड़ी समस्याओं की आप बात कर रहे हैं देश-दुनिया में अनगिनत स्कूलों, विश्वविद्यालयों में उनपर अलग से सर्टिफिकेट, डिग्री पाठ्यक्रम तक पढ़ाये जाते हैं। रोज़ जगह-जगह हज़ारों जागरूकता एवम मदद प्रोग्राम, सेमिनार, कैंपेन आयोजित किये जाते हैं। कितने ही सरकारी विभाग, निजी संस्थाएं उन समस्याओं पर अनुसंधान और उनके निवारण (उन्हें कम करना बेहतर शब्द होगा) के लिए मौजूद हैं। हाँ, मैं मानता हूँ कि लोगों को और अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है, साथ ही विभागों, संस्थाओं की कार्यप्रणाली और कार्यान्वयन को बेहतर किया जा सकता है पर ऐसी फ़िल्मी डायलॉगबाज़ी से बचें कि कोई कुछ नहीं करता। कोई नहीं बल्कि करोड़ों लोग करते हैं इसलिए सामान्य बात नज़रों में आते हुए भी बच जाती है। वो करोड़ों लोग इस सामान्य से काम को करना छोड़ दें तो दुनिया की बैंड बज जायेगी। इस वजह से जेनेरिक (व्यापक) समस्याओं को स्पेसिफिक (छोटी पर नयापन लिए अलग) घटनाओं के बराबर रखना जायज़ नहीं है। समाज सेवा के अनेकों अवसर ठीक आपके सामने होंगे, कोसने के अलावा उन अवसरों को चुनने की हिम्मत भी रखें।
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#ज़हन