सागर की हिलोरे
सागर की हिलोरे
चल रे मन बन पँछी उड़ आकाश भावना को मत दबा,
अटखेलिया करता मन क्या नाप सकेगा सागर की थाह?
रोजगार की तलाश मे निकले मन मे उधेड़ बुन तानाबाना,
जिंदगी की कसौटी पर खरे उतरना आग के अंगार पर।
निकाल ले समुंद्र की गहराई से रोटी मिटाले पेट की भूख,
अंगारो सी चिलमिलाती धुप में रेत की तपन का तपना।
सिहर जाता है उद्वेगिक मन भँवर बीच उथल- पुथल में ,
चलते पैरों में पड़े छालो से रिसते हुए आखों के अश्रु।
जिन्दगी उतनी ही जटिल है जितना की सागर की गहराई ,
मन को स्थिर कर समझ क्षुण भंगुर जीवन के मर्म को।
सतपाल चौहान