साक्षात्कार
साक्षात्कार
(लघुकथा)
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हरिराम की उच्च आकांशा ने उसे कब क्रूर और अमानवीय बना दिया उसे पता ही नहीं चला । नित्य वन्यजीवों का शिकार कर उनका मांस और चर्म बेचना उसका एकमात्र ध्येय रहता था । शिकार में निपुण इतना कि उसका शब्द-भेदी बाण भी कभी चूकता नहीं था । एक दिन जब हरिराम जंगल की ओर आया तो कुछ हलचल सुनते ही उसने अपना अचूक शब्दभेदी बाण छोड़ दिया । जब वह शिकार को संभालने गया तो हरिराम को काटो तो खून नहीं ! बस ! उसकी आंखों से एक अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो चली । यह अश्रुधारा उसकी चहेती बछड़ी के लिए थी जो उसके पीछे-पीछे जंगल में आ गई थी और अब उसके शब्दभेदी बाण से अंतिम सांसें ले रही थी । बछिया की निष्प्राण होती आंखों में एक मूक वेदना हरिराम को निहार रही थी । हरिराम इस अप्रत्याशित दु:खद घटना से रूबरू हो रहा था। यह वह क्षण था जिसमें वह अपनी बछिया की आंखों में अपनी अमानवीय लालसा का साक्षात्कार कर रहा था ।
— डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”
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