साक्षात्कार- डॉ. आरती ‘लोकेश’- लेखिका, कारागार (उपन्यास)
डॉ. आरती ‘लोकेश’ जी की पुस्तक “कारागार (उपन्यास)” हाल ही में साहित्यपीडिया पब्लिशिंग द्वारा प्रकाशित हुई है| यह पुस्तक विश्व भर के ई-स्टोर्स पर उपलब्ध है| आप उसे यहाँ दिए गए लिंक पर जाकर प्राप्त कर सकते हैं- Click here
1) आपका परिचय?
एक सुशिक्षित सभ्य परिवार में गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश में माँ श्रीमती शारदा देवी तथा पिता श्री महेन्द्रकुमार गुप्ता के आँगन में जन्म हुआ। स्कूली शिक्षा, स्नातक, बी.एड. तथा अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर्स की दीक्षा गाज़ियाबाद से कॉलेज में द्वितीय स्थान के साथ प्राप्त की। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर में यूनिवर्सिटी स्वर्ण पदक प्राप्त कर हिंदी साहित्य में पी.एच.डी. की उपाधि हासिल की। चार्टर्ड एकाऊंटैंट की पत्नी तथा दो बालकों की माता हूँ। पिछले छब्बीस वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हूँ।
2)आपको लेखन की प्रेरणा कब और कहाँ से मिली? आप कब से लेखन कार्य में संलग्न हैं?
बाल्यकाल में बहुत सी हिन्दी की प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पुरस्कार प्राप्त किए। तब संस्कृत में स्नातकोत्तर व हिंदी लेखन में प्रवीण मेरी बुआ लेखन में मेरी मदद किया करती थीं। विद्यालय की पत्रिका के लिए लिखे आलेख, कविताएँ तथा कहानियाँ बहुत पसंद की गईं। विद्यार्थियों तथा अपने बच्चों के लिए हिंदी व अंग्रेज़ी में लिखा जिससे उन्हें कई ईनाम मिले। वास्तविक लगन तो पी.एच.डी. करने के बाद लगी जब उस दौरान वृहद साहित्य का अध्ययन किया तो चेतना जागृत हुई। लेखन के लिए बहुत से विचार, कथानक, विषयवस्तु मस्तिष्क में घुमड़ने लगे। प्रेरणा तो उन सभी साहित्यकारों से मिली जिनको मैंने पढ़ा, समझा, उनकी कृतियों के माध्यम से उन्हें जाना तथा कुछ अंश तक गुनने का भी प्रयास किया। हाँ! पति श्री लोकेश कुमार गोयल की अभिप्रेरणा का भी बहुत बड़ा योगदान है कि मैं उनके बार-बार आग्रह करने से लेखन को उन्मुख हुई। स्वतंत्र लेखन कार्य मैंने 2011 से प्रारंभ किया।
3) आप अपने लेखन की विधा के बारे में कुछ बतायें?
मूलत: गद्य विधा में लिखना पसंद करती हूँ। कुछेक कहानियों के बाद ही मैंने प्रथम उपन्यास ‘रोशनी का पहरा’ का लेखन कार्य आरंभ कर दिया था। 2015 में इस उपन्यास के सफल प्रकाशन के पश्चात कहानियों के साथ-साथ कविताओं में भी कलम चलाई। जल्द ही कविता-संग्रह भी पाठकों के समक्ष उपस्थित होगा। प्रस्तुत उपन्यास ‘कारागार’ का लेखन कार्य 2015 में प्रारंभ किया। मेरी लेखनी अधिकतर नारी पात्र को केंद्र में रखकर ही चलती है।
4) आपको कैसा साहित्य पढ़ने का शौक है? कौन से लेखक और किताबें आपको विशेष पसंद हैं?
सदैव साहित्य की विद्यार्थी के रूप में गौरव का अनुभव किया है। महादेवी वर्मा के गद्य ने मुझे सदा से ही आकर्षित किया है। उपन्यास सम्राट ‘मुंशी प्रेमचंद’ की बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ। बचपन से उनकी लिखी कहानियों को अपने पाठ्यक्रम में पढ़-पढ़कर ही गद्य पढ़ने का रुझान बढ़ा है। रघुवीर सहाय, यशपाल, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, शरद जोशी, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, मालती जोशी आदि को रुचि से पढ़ती हूँ। अंग्रेज़ी में आर. के. नारायण, शिव खेड़ा, स्टीफ़न कोवी, टोनी बुज़ान मेरे पसंदीदा लेखक हैं।
5) आपकी कितनी किताबें आ चुकी है?
उपन्यास ‘रोशनी का पहरा’ के बाद ‘कारागार’ मेरा दूसरा उपन्यास परंतु तीसरी पुस्तक है। पी.एच.डी. के दौरान किया गया मेरा समस्त शोध कार्य भी ‘रघुवीर सहाय के गद्य में सामाजिक चेतना’ नमक शोध ग्रंथ के रूप में प्रकाशित है। एक साझा काव्य-संग्रह तथा दो साझा कथा-संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। स्वतंत्र रूप से एक कविता संग्रह तथा एक अन्य कहानी संग्रह पर भी काम चल रहा है। तीसरे उपन्यास की रूपरेखा भी तैयार की जा चुकी है। पाठकों के आशीर्वाद इस दिशा में से सतत कार्यरत रहूँगी।
6) प्रस्तुत पुस्तक के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?
उपन्यास ‘कारागार’ एक नारी के अंतर्मन को टटोलता है। मुख्य नायिका चारु के जन्म से लेकर, उस पर पड़ी उन समस्त विपदाएँ उसके व्यक्तित्व को एक विशिष्ट आकार देती हैं। पारिवारिक तथा सामाजिक विषमताओं तथा परिस्थितिजन्य आपदाओं से घिरे होने के पश्चात भी वह अपने सामाजिक कर्त्तव्य का निर्वहन प्रेरणा स्तम्भ बनकर करती है। उसके जीवन की गाथा हम में से बहुत सी नारियों की अपनी ही कहानी है। उसकी हठधर्मिता उसे अपने ही लाभ तथा जीवन सँवारने के अवसर से दीर्घकाल तक वंचित रखती है। कारागार जैसी जगह में भी वह बहुत कुछ अविस्मरणीय राष्ट्रोपयोगी कर गुज़रती है।
अपने उपन्यासों को सँवारने का श्रेय मैं अपनी पहली पाठक, समीक्षक तथा आलोचक डॉ. मंजु सिंह तथा दूसरी, अपनी पुत्री अपूर्वा को देना चाहूँगी जिन्होंने तटस्थ व निष्पक्ष रूप से समय-समय पर अपनी मूल्यवान टिप्पणियों से इसे अनुग्रहीत किया है।
7) ये कहा जा रहा है कि आजकल साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है। इस बारे में आपका क्या कहना है?
साहित्य की श्रेणी की कसौटी तथा साहित्य के स्तर के मानकों का निर्धारण किए बिना इस विषय पर निर्णय देना असंगत होगा। जैसे-जैसे सामाजिक परिस्थियाँ बदलती हैं, साहित्य भी पुराना दुशाला उतारकर नया चोला धारण करता है। साहित्य पहले भी उत्कृष्ट और निम्न दोनों रूपों में उपलब्ध था और आज भी है। यह तो पाठकों की व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर करता है कि वे इतने सारे मिष्ठान्न छोड़कर क्या गंदगी के इर्द-गिर्द मँडराना पसंद करेंगे। यह तो हमारे, अर्थात् समाज के विवेक पर निर्भर करता है कि हम उन्हें साहित्य की श्रेणी में रखें या नहीं।
8) साहित्य के क्षेत्र में मीडिया और इंटरनेट की भूमिका आप कैसी मानती हैं?
आज के युग में मीडिया और इंटरनेट की सार्थक भूमिका से साहित्य जगत भी अछूता नहीं है। इस प्रगतिशील युग में यह एक ऐसी ही क्रांति का द्योतक है जो कि इतिहास में मुद्रण मशीन के आविष्कार तथा छापाखानों की स्थापना के पश्चात हुई थी। मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से आज साहित्य देश-विदेश के पाठकों-लेखकों को एक सूत्र में बाँधे हुए है। साहित्य की परिधि का विस्तार दिन दूना रात चौगुना हो रहा है। न केवल प्राचीन तथा आधुनिक साहित्य अपितु सर्वथा नवीन साहित्य भी जन-जन तक पलक झपकते ही पहुँच रहा है। मीडिया और इंटरनेट ने इस क्षेत्र में चमत्कारिक योगदान दिया है।
9) हिंदी भाषा मे अन्य भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को आप उचित मानती हैं या अनुचित?
मुझे अन्य भाषा के शब्दों के प्रयोग से परहेज नहीं है। यदि हम भाषा के मौखिक रूप अर्थात बोलने या सुनने की बात करें तो सुविधा की दृष्टि से उन सभी शब्दों का प्रयोग मान्य है जिनसे संदेश अथवा मनोभाव प्रेषित करने में सहायता मिले। लिखित भाषा लिखने व पढ़ने के लिए होती है, वहाँ पर अन्य भाषाओं के शब्द उसी अवस्था में प्रयोग किए जाने चाहिए जबकि उस भाव के संप्रेषण के लिए हिंदी भाषा में शब्द उपस्थित न हो या फिर वे शब्द इतने क्लिष्ट हों कि सर्वसाधारण की समझ से परे हों। अन्य भाषाओं के सुगम शब्दों का सामावेश कर हिंदी भाषा को समृद्ध करने का कार्य सदा से किया जाता रहा है। हमारी हिंदी भाषा के बहुत से शब्दों को इसी प्रकार अन्य भाषाओं के शब्दकोशों में स्थान मिला है।
10) आजकल नए लेखकों की संख्या में अतिशय बढ़ोतरी हो रही है। आप उनके बारे में क्या कहना चाहेंगी?
इस बात से सहमति, आश्चर्य व खुशी प्रकट करती हूँ। परंतु इन सभी नए बढ़ते लेखकों से मेरा अनुरोध है कि लेखन कार्य करते समय और उसका लोकार्पण करते समय इस तथ्य को कदापि न भूलें कि आज भी साहित्य समाज का दर्पण है और जिस प्रकार का साहित्य हम अपने पाठकों को परोसेंगे वही उनकी मनोवृत्ति के निर्माण में वह योगदान देगा। रचनाकार को एक निर्माता के दायित्व से कभी विमुख नहीं होना चाहिए अन्यथा उसे रचनाकार कहलाने का कोई अधिकार नहीं।
11) अपने पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
अपने सभी सुधी पाठकों को अपने असीम स्नेह प्रदान करने के साथ मेरी यह अभिलाषा रहेगी कि वे अपनी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य धन्य करें। जिस प्रकार एक डॉक्टर का कार्य सारी उम्र अभ्यास (प्रैक्टिस) कहलाता है उसी प्रकार एक लेखक भी आजीवन लेखन का अभ्यास ही करता है। कोई लेखक लेखन के किसी भी मोड़ पर यह दावा नहीं कर सकता कि अब वह दक्ष हो चुका है। यह निरंतर सीखते रहने की प्रक्रिया है। पाठकों की गुणात्मक समीक्षा अवश्य लेखन में संशोधन अथवा परिमार्जन में सहायता करती है अत: आप गुणीजन मुझे इस लाभ से कदापि वंचित न रखें। अपने अमूल्य विचारों से मुझे अवगत कराते रहें।
12) साहित्यपीडिया पब्लिशिंग से पुस्तक प्रकाशित करवाने का अनुभव कैसा रहा? आप अन्य लेखकों से इस संदर्भ में क्या कहना चाहेंगी?
साहित्यपीडिया पब्लिशिंग से प्रकाशित यह मेरी पहली पुस्तक है। मुझे अत्यंत गर्व है कि मैं इतने प्रतिष्ठित साहित्य प्रकाशन मंच से जुड़ी हूँ। संपर्क साधने के प्रथम दिवस से अब तक साहित्यापीडिया पब्लिशिंग की टीम ने अनन्य सहयोग प्रदान किया है। उनकी कार्यकुशलता, सुनियोजितता, सुव्यवस्था अनुकरणीय है। मुख्य प्रकाशक श्री अभिनीत मित्तल जी ने बड़े ही धैर्य तथा विवेक से सारे अनुष्ठान सम्पन्न किए हैं। इस कार्य के लिए उनकी श्रद्धा, लगाव व समर्पण सराहनीय है। पुस्तक के सफल प्रकाशन के लिए वे बधाई के पात्र हैं। आशा है कि भविष्य में भी यह प्रकाशक-लेखकीय नाता बना रहेगा।
अन्य लेखकों से मैं यह आग्रह करना चाहूँगी कि अपनी अमूल्य कृतियों के चिंतामुक्त प्रकाशन के लिए वे साहित्यापीडिया पब्लिशिंग को ही संपर्क करें तथा अपना ध्यान व अमूल्य समय केवल रचनाधर्म निभाते हुए गुणात्मक साहित्य सृजन पर केंद्रित करें।