साँझ
दिनभर की मेहनत से बोझिल, सूरज जब थक जाता है
किरणों की भारी गठरी लादे, निज आलय मुड़ जाता है
अरुण के पीछे पंछी गुमसुम, फलक डगर उड़ जाते हैं
जैसे संकल्पित घोर तपस्वी, मोह को तज कर जाते हैं
दूर क्षितिज के नीरव में जब धरती और अंबर मिलते हैं
लाज की लाली जग बिखराकर, गुपचुप बातें करते हैं
मिलन के मद में व्याकुल वसुधा, नैन झुका इठलाती है
फिर लाल गुलाबी पीत चुनरिया, लहराकर बल खाती है
श्याम जलद में श्वेत कलानिधि, ओज वसन में आते हैं
चंद्रिका की बाँह थामकर, जग को शीतल कर जाते हैं
प्रेम की आभा नित्य निरन्तर, मन उपवन बस जाती है
साँझ की सुंदर श्यामल रमणी, रसिक हृदय मुस्काती है
डाॅ. सुकृति घोष
ग्वालियर, मध्यप्रदेश