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17 Oct 2023 · 9 min read

*सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक), रामपुर, उत्तर प्रदेश का प्रथम

सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक), रामपुर, उत्तर प्रदेश का प्रथम वर्ष 15 अगस्त 1959 से 1960
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समीक्षक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
(यह समीक्षा-लेख गणतंत्र दिवस विशेषांक 1988 सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक में प्रकाशित हो चुका है।)
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सहकारी युग (हिन्दी साप्ताहिक) की जीवन यात्रा का आरम्भ 15 अगस्त 1959 से होता है, जब रामपुर जैसे छोटे से नगर में साहित्य, समाज और राजनीति-जगत को श्रेष्ठ जीवन-मूल्य प्रदान करने तथा उच्च स्तर के मर्यादित, निष्पक्ष, निर्भीक, साहसी और प्राणवान लेखन को प्रतिष्ठित करने के लिए श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त के पुरुषार्थ से इस पत्र ने जन्म लिया ।
सहकारी युग मूलतः साहित्यिक पत्र है और इसकी यही मौलिक विशेषता इसके प्रत्येक प्रष्ठ और अक्षर-अक्षर पर असंदिग्ध रूप से प्रकट होती रही है। साहित्यिक पत्र का अर्थ केवल कविता या कहानी छाप देना- भर नहीं होता । सहकारी युग ने हिन्दी में पहली बार ‘साहित्यिक- पत्रकारिता’ को जन्म दिया और रामपुर की धरती पर एक ऐसे हिन्दी पत्र का उदय संभव हुआ जिसने अपने समाचारों, विचारों, लेखों और संपादकीयों के द्वारा समर्पित साहित्यिक सुरूचि की धाक न केवल रामपुर अपितु सारे भारत के बुद्धिजीवी वर्ग पर जमा दी । लेखन को राष्ट्रदेव की आराधना के धरातल पर रखने वाले इस पत्र के नियमित प्रकाशन में रामपुर की साहित्यिक-बौद्धिक हलचल का प्रामाणिक और ऊॅंचे दर्जे का इतिहास न केवल सुरक्षित है, अपितु राष्ट्र के मस्तिष्क को गहराई से प्रभावित करने वाले समकालीन विषयों पर उच्चस्तरीय विवेचन भी उपलब्ध है।

प्रवेशांक (15 अगस्त 1959 ) के संपादकीय में प्रत्यन्त भावुक भाषा-शैली में सहकारी युग समाज को “श्रद्धा की मूर्ति के समान जनता-जनार्दन” की संज्ञा देता हुआ मिशनरी भावना का प्रतिपादन करता हुआ कहता है कि अखबारों यानि “पत्र पुष्पों का कार्य पूजा में चढ़ जाना और बदले में मूर्ति से अपनी पूजा की अपेक्षा न करना ही उचित है।” पत्र आगे लिखता है कि “आइए! थोड़ा आगे जाकर और विचार कर उदाहरण लें उस पुष्प का जो प्रिय है भगवान विष्णु का और सदा वही पुष्प उनकी एक भुजा का आश्रय लिए आदर के साथ जीवित रहता है, भक्तजनों से प्राप्त पूजा के एक अंश का भागीदार बनता है तथा विष्णु के पूजित रूप की समग्रता चिरस्थाई बनाये रखने के कार्य में एक बड़े उत्तरदायित्व को निभाता है। इस “पुष्प” को यह सम्मानित स्थान अकारण नहीं मिला। शास्त्र साक्षी हैं कि उसे भीषण तपस्या करनी पड़ी है । सहकारीयुग का प्रथम अंक रामपुर की जनता के समक्ष है, इस विश्वास के साथ कि वह अपनी अनवरत सेवा द्वारा विष्णु भगवान के ‘पद्म’ के समान जनता के साथ और पास रहकर इस जिले के पत्रों के इतिहास क्रम में नया पृष्ठ संलग्न कर सकेगा।”
सम्पादकीय के अतिरिक्त इसी प्रवेशांक में श्री महेन्द्र प्रसाद गुप्त की ही लेखनी से लोकमान्य तिलक की लगभग एक पृष्ठ की जीवनी प्रकाशित हुई थी। तिलक को याद करते हुए सहकारी युग प्रवेशांक ने लिखा था “संघर्ष के प्रणेता तिलक महाराज को आंग्ल शासन की बर्बरतायें उनके कर्मपथ में आजीवन खड़ी रहकर भी, डिगा न सकीं । उनका संघर्षमय जीवन दृढ़-निश्चय एवं शत-प्रतिशत देश भक्ति का सन्देश दे रहा है।” अपनी प्रवाहपूर्ण, निर्दोष और प्रांजल हिन्दी से पत्र ने पाठकों का ध्यान सहज ही आकृष्ट कर लिया।

सहकारी युग ने सदा युग-धर्म निभाया और अगले हफ्ते ही (अंक 2 में) कम्युनिस्टों के स्वतंत्रता दिवस न मनाने के निर्णय की गहराई से वैचारिक समीक्षा की और इस कुनिर्णय को वह पत्थर बताया जो कम्युनिस्टों ने वास्तव में “कांग्रेस दल या कांग्रेस सरकार पर न फेंक कर भारत की चालीस करोड़ जनता पर” बरसाया है। इस अवसर पर संपादकीय ने कम्युनिस्टों का वैचारिक पोस्टमार्टम किया और भारतीय जनता को यह बताने में संकोच नहीं किया कि कम्युनिस्ट “इन्सानी आजादी के हामी न होकर रूसी गुलामी के समर्थक हैं। अपने देश की आजादी के समारोह में सम्मिलित न होने के निश्चय से कम्युनिस्ट पार्टी ने उन सब दिलों से अपना अस्तित्व उखाड़ फेंका कि जहॉं गॉंधी, सुभाष, भगत सिंह, आजाद आदि अमर शहीदों की याद घर किए हुए है ।”
सहकारी युग ने लोगों को याद दिलाया कि ” आजादी के दिन से नफरत या आाजादी से नफरत दोनों एक ही बातें हैं ।” उसने लिखा कि रूसी साम्यवादी ढांचे में बच्चों को “कामसोमोल शिक्षा संगठनों के द्वारा हर उस अच्छी बात से दूर रखा जाता है जिसका जन्म प्रकृति के स्वच्छन्द बातावरण में हुआ है या जिसे रूसी ‘फॉंसीवाद’ की दम घोटने वाली गंध से दूषित न किया गया हो। क्या यह कहना गलत होगा कि भारत के कम्युनिस्ट कामसोमोल संगठन के वह बच्चे हैं कि जो एक सिरे पर स्टालिन की और दूसरे पर ख्रुश्चैव की जय बोलते हैं ?” एक अखबार की निष्पक्षता के मायने सत्य और असत्य के प्रति निरपेक्ष रहना नहीं होता । वस्तुतः सत्य की पक्षधरता ही निष्पक्षता होती है ।
सहकारी युग ने अपनी शुरुआत से ही निर्भीकता पूर्वक असत्य के विरोध में और सत्य के पक्ष में विचार प्रकट करने का काम किया।

अंक दो में ही ज्ञान मन्दिर में स्वतंत्रता दिवस समारोह के आयोजन की रिपोर्ट है, जिसमें प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल आदि महत्वपूर्ण व्यक्तियों को उपस्थिति दर्ज है। वास्तव में तो अपने जन्म से ही सहकारी युग ज्ञान मन्दिर का मुख पत्र बन गया था ।

हिन्दी दिवस 1959 के अवसर पर सहकारी युग ने भाषाई भ्रातृत्व का पक्ष लेते हुए लिखा कि “हिन्दी का प्रचार हमारा मिशन बने लेकिन उसमें किसी अन्य भाषा के प्रति द्वेष को बू न आने पाए। अपितु उन्हें हिन्दी की ओर से छोटी बहिन का-सा स्नेह और आदर दिया जाय । यदि कहीं भूले से भी हिन्दी वालों ने भारतीय भाषात्रों के प्रति कड़वाहट का रुख अपनाया तो उससे क्षति पहुंच सकती है।”

12 दिसम्बर, 1959 में दरोगा जी, वाचाल की मीठी बातें स्तम्भ काफी चुटकी लेकर बात करना सहकारीयुग के जन्म से ही चालू कर चुका है। 14 नवम्बर के अंक में श्री रामभरोसे लाल भूषण ने “चीनी आक्रमण एशिया की शांति पर हमला” शीर्षक से लंबा लेख लिखा । कुमारी शकुन्तला अग्रवाल ने एक अन्य लेख में आवाहन किया कि “चाचा नेहरू स्कन्द गुप्त बनें।”
श्री शशि जी ने 21 नवम्बर को चीन विषयक लम्बी कविता में जोरदार मांग की कि “अब केवल विरोध पत्रों से कार्यं सुरक्षा का न चलेगा ।”

ज्ञान मंदिर सहकारी युग के केन्द्र में सदा रहा । 28 नवम्बर के अंक में श्री महेन्द्र ने ज्ञान मंदिर के इतिहास से सम्बन्धित स्थाई महत्व का आधे पेज से अधिक का लेख छापा । 10 दिसम्बर के अंक में उ०प्र० विधान सभा और भारत सेवक समाज के अध्यक्ष श्री आत्मा राम गोविन्द खरे “कन्धों पर चढ़कर ज्ञान मन्दिर पहुंचे” ऐसा पृथम पृष्ठ का यह समाचार अत्यन्त भाव-विह्वल कर देता है। वस्तुतः ज्ञान- मंदिर के सम्बन्ध में प्रकाशित सहकारीयुग का अक्षर-अक्षर अत्यन्त प्राणवान है और संपूर्णतः उद्धृत करने योग्य है। छोटे से इस लेख में स्थानाभाव के कारण यह संभव नहीं है।
4 जनवरी 1960 के अंक में सहकारी युग ने विश्वविद्यालयों में अनुशासनहीनता की विस्तार से समीक्षा की और प्रतिपादित किया कि राजनीति के हस्तक्षेप से यूनियनों और घोर राजनीतिक संगठनों द्वारा “छात्रों को उद्दन्डता, अशान्ति और गन्दी सियासत के पाठ ही अधिक पढ़ाए गए हैं।” पत्र ने कहा कि अगर राजनीतिक पार्टियाँ “विश्वविद्यालयों से अपना तमाशा हटा लें तो संभव है परिस्थितियां बदलें और आये दिन विश्वविद्यालयों में ताले न पड़ें।”

10 मार्च, 1960 को छपी “किरमचा में हरिजनों का मन्दिर प्रवेश” शीर्षक से यह खबर आकृष्ट करती है कि “ 23-2-60 को एक बजे हरिजन और जाटव भाइयों ने सार्वजनिक कुएं से जल भरा और मन्दिर प्रवेश किया। समस्त ग्राम निवासी सवर्णों ने सहर्ष सहयोग दिया ।” पत्र अन्त में आवाहन करता है कि “ग्राम किरमचा निवासियों ने इस उत्तम कार्य का हमारे जिले को अनुगमन करके रामपुर के इतिहास को उज्ज्जवल करना चाहिए।”

श्री रामभरोसे लाल भूषण सहकारी युग के प्रारम्भ-काल के महत्त्वपूर्ण लेखक हैं । 30 अप्रैल, 1960 को छपा पंजाब की पृष्ठ भूमि में उसका आधे पेज का यह लेख आज भी अत्यन्त सामयिक है कि “हिन्दू और सिख के बीच दीवार क्यों ?” इस लेख की केन्द्रीय चिन्तन भूमि यह है कि “हिन्दू और सिख कोई अलग-अलग धर्म वाले नहीं हैं ।” दरअसल जो समस्या आज हमें देखनी पड़ रही है, सहकारी युग ने दशकों पहले ही भारतीय जनता को उससे आगाह कर दिया था।

अपने अनेक संपादकीयों की श्रंखला में ही 18 मई, 1960 को सहकारी युग ने लम्बे सम्पादकीय में मांग की कि तीसरी योजना में रामपुर का विकास सुनिश्चित किया जाय। पत्र के अनुसार यह काम रामपुर के वोटर, पत्रकार और नेता तीनों मिलकर ही कर सकते हैं ।

ज्ञान मंदिर का मुखपत्र सहकारी युग बन गया, जिसका प्रमाण है 8 जून, 1960 की यह रपट जिसके अनुसार ज्ञान मन्दिर में “प्रत्येक सोमवार को रात्रि में 8 बजे विचार-गोष्ठी का आयोजन” हुआ करेगा, जिसकी विशेषता यह रहेगी कि किसी भी व्यक्ति को आमंत्रित नहीं किया जायेगा अपित केवल इस पत्र (सहकारी युग) के द्वारा सूचना प्रसारित की जाती रहेगी और विषय में दिलचस्पी रखने वाले सज्जन स्वतः पधारेंगे।”

सहकारी युग की 26 जून, 1960 की फाइल से पता चलता है कि 27 जून, सोमवार को रामपुर के एक वकील श्री सैयद फरीदुद्दीन उर्फ अच्छे मियां का “वेदान्त” पर भाषण, फिर 20 जून को मास्टर बुलाकी राम का पर्वतीय प्रदेश विषयक भाषण का आयोजन रखा गया। इससे पहले “तीसरी पंचवर्षीय योजना में रामपुर का स्थान” विषय पर ज्ञान मंदिर गोष्ठी का समाचार काफी आकर्षक छपा । अग्रवाल धर्मशाला में सम्पन्न ज्ञान मंदिर के कवि सम्मेलनों जिसमें बाहर से पधारे प्रतिष्ठित कवि भी भाग लेते थे, की जानकारी भी सहकारी युग से प्राप्त होती है ।

4 जुलाई 1960 के अंक में सहकारी युग ने दो प्रष्ठों में ज्ञान मंदिर के अतीत के गौरव पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए अन्त में मांग की कि इस पुस्तकालय को स्टेट बैंक के सामने नजूल की जमीन दिलाई जाए, ताकि इसका विकास हो सके। ज्ञान मंदिर के प्रति अपनत्व और उसके विकास के प्रति सहकारी युग की रूचि का यह अंक अपने आप में पर्याप्त प्रमाण है । इस अंक में नार्दर्न इन्डिया पत्रिका, अमृत बाजार पत्रिका, नेशनल हेरल्ड आदि पत्रों में ज्ञान मंदिर से सम्बन्धित छपे विभिन्न स्तरों से समाचार उद्धृत किए गए हैं, जिनका सम्बन्ध श्री ए० जी० खरे और पं० कमलापति त्रिपाठी के ज्ञान मंदिर पधारने से था । महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बन्धित इतना अधिक लिखने पर भी सहकारीयुग ने यही कहा कि “ज्ञानमंदिर के प्रति प्रकट किए उद्गारों का शायद शतांश हम इस पृष्ठ पर छाप पाए हैं।” इसी अंक में सहकारी युग ने सम्पादकीय में रामपुर के संदर्भ में आवाहन किया कि “सत्तारूढ पार्टी के नेतागण जनता से तथा जनता की समस्याओं के निदान से इतना अधिक सम्बद्ध रहें कि जिससे जनता को विश्वास रहे कि उसके वोट का सही इस्तेमाल हुआ है और उसका प्रतिनिधि स्वसेवा के बजाय जन सेवा के सिद्धान्त का समर्थक है ।”

2 अगस्त 1960 के संपादकीय में “पत्रकारों की दुनिया” शीर्षक से सम्पादकीय लिखता है कि “जिस पत्रकार की कलम से लिखा गया प्रत्येक शब्द यह कहता है कि वह समाज की रक्षा का, समाज के निर्माण का जिम्मेदार है, वहां पत्रकार समाज की शान है, गले का हार है।”
पत्रकारिता के उच्च आदर्श का स्मरण कराते हुए पत्र आगे लिखता है “पत्रकार तो अभाव में जन्मता है और मर जाता है किन्तु मरते समय विश्व भर का वैभव, सम्पत्ति इसके चरणों की चेरी होती है, मृत्य के बाद सम्पूर्ण विश्व उसका भक्त बन जाता है ।”
“पत्रकार मर-मर कर लिखते हैं जिन्दगी को जिन्दा रखने के लिए । जल-जल कर साहित्य की रचना करते हैं। सत्य की ज्योति को अजर और अमर बनाने के लिए ।”

ऊपर लिखी पंक्तियों में सहकारी युग के प्रथम एक वर्ष के लेखन प्रवाह का केवल एक नमूना-भर हीं दिया जा सका है। वस्तुतः सहकारी युग का एक वर्ष तो एक पूरी पुस्तक के आकार की अपेक्षा करता है ।
सहकारी युग का पहला साल उस दीपक का उजाला बनकर उदित हुआ जिसने साहित्य-विचार संसार को अनूठे ढंग से आलोकित करने के क्रम का श्री गणेश किया। सर्वश्री कल्याण कुमार जैन शशि, चन्द्रप्रकाश सक्सेना कुमुद’, कंचन, वियोगी, ललित मोहन सिंह पालनो, नागेश, हरीश, श्री प्रभात, राजकुमार झा दीन, श्रीभक्त, मुन्नू लाल शर्मा, डा० शिवादत्त द्विवेदी और महेश राही सहकारी युग के वह उल्लेखनीय रचनाकार हैं जिनकी कविता-कहानी-लेख इस वर्ष समय-समय पर पत्र को अत्यन्त मूल्यवान बनाते रहे हैं। पत्र से आकृष्ट होकर श्री कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने अपनी एक कहानी 4-1-60 में सहकारी युग को छपने को भेजी । इन सबका और अनेक अन्य समाचारों, लेखों, सम्पादकीयों का विधिवत उल्लेख इस छोटे से लेख की सीमाओं में करना कठिन है। इस लेख का उद्देश्य एक पूर्ण चन्द्र के उस शैशव का स्मरण करना है जब वह द्वितीया के चॉंद की लकीर बनकर अपने अदम्य साहस, संकल्प और निष्ठा के बल पर समर्पित पत्रकारिता के मार्ग पर निर्लोभी वृत्ति से कदम बढ़ाने को उत्साहित हुआ था । सहकारी युग ने अपनी शुरुआत से आज तक कुछ नहीं चाहा, सिवाय भगवान विष्णु के परम पवित्र ‘पद्म’ बनने के। पत्र-पुष्प सात्विक आराधना मात्र-प्रभु के चरणों में स्थान पाने की होती है ! पवित्रता की यह सात्विक प्रखरता ही सहकारी युग की पूॅंजी है ।

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