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2 Mar 2022 · 5 min read

सहकारी युग ,हिंदी साप्ताहिक का 15 वाँ वर्ष { 1973 – 74 }*

सहकारी युग ,हिंदी साप्ताहिक (रामपुर) का 15 वाँ वर्ष { 1973 – 74 }
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समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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1973 को आजादी के दिन सहकारी युग भावुक होकर पूछता है : “हमारे खून की गर्मी कहाँ गई ? तिलक ,भगत सिंह ,आजाद को क्या बिल्कुल दफना दिया ?”आगे कहता है पत्र कि” तिलक के घोष, चंद्रशेखर की पिस्तौल ,भगत सिंह की फाँसी ,बिस्मिल की शायरी के प्रति हम उपेक्षा से देख रहे हैं। संभव है कल उनके इतिहास और उनके स्मारकों को हम ही भस्मसात कर अट्टहास कर उठे और इस प्रकार जो स्थिति उत्पन्न होगी , कदाचित वह गुलामी से कई सौ बार अधिक भयानक होगी ,आत्मघाती होगी।”
उपरोक्त पंक्तियों में क्रांतिवादी विचारधारा की वह भावुकता है जिसका स्पर्श सहकारी युग के सिवाय अन्य किसी राष्ट्रीय पत्र के संपादकीय में भी मिलना कठिन है । हृदय और आत्मा की अनुभूतियों को साथ लेकर भावनाओं को लिपिबद्ध करना साधना है। यूँ कागज को काला तो बहुत कर लेते हैं । सहकारी युग की साधना व्यक्ति-व्यक्ति को जगाने और देश-संस्कृति-इतिहास की गौरवशाली धारा से जुड़ कर जन-मस्तिष्कों में पवित्र हलचल मचाने की रही है ।
जिला सूचना अधिकारी श्री भगवान स्वरूप सक्सेना की रामपुर से विदाई को पत्र ने उन मानवीय मूल्यों से युक्त व्यक्ति का बिछोह बताया जिनका निर्माण साधना और त्याग के आधार पर होता आया है और जिन में झाँकती दिखाई देती हैं वह प्रतिमाएँ जिन्हें साहित्यकारों विद्वत्जनों एवं संस्कृति के सृष्टाओं ने चित्रित किया है । भावनाओं की धारा में बहा पत्र कहता है ,”क्या यह संभव है कि तुम रामपुर से चले जाओ ? यकीनन नहीं ,क्योंकि तुम रामपुर पर और रामपुर तुम पर इस कदर छा चुका है कि इस विदाई में कृत्रिमता ही दिखाई देती है ।”(संपादकीय 27 अगस्त 1973)
1973 में ही सहकारी युग को लगा कि ” शिक्षक दिवस की सिर्फ एक लकीर पीटी जा रही है ।” “कैसी विडंबना है यह” पत्र ने कहा कि “एक ओर शिक्षा के क्षेत्र में अपराध-वृत्ति बढ़ती जा रही है तो दूसरी ओर शिक्षक दिवस का आयोजन हो रहा है।”पत्र ने कामना की कि “शिक्षक को उसका खोया हुआ सम्मान वापस मिले और उसका अस्तित्व समाज की जागृति के लिए उपयोगी सिद्ध हो ।”(संपादकीय 5 सितंबर 1973 )
सहकारी युग ने महसूस किया कि बार-बार होने वाली हड़तालों और बंद की घटनाओं से “उत्पादन में कमी ,टैक्सों और कीमतों में वृद्धि हुई है और उसका प्रभाव उस जनता पर पड़ा है जिस का शोषण आज जनतंत्र में विरोधी और सत्ताधारी दलों के माध्यम से हो रहा है ।” पत्र ने लोगों को समझाने का प्रयास किया कि विरोधी दलों की उपरोक्त प्रवृत्तियों के मूल में अपेक्षाकृत जन हितों के उन दलों के अपने हित अधिक निहित हैं। पत्र कामना करता है कि भारतीय समाज का जागरूक वर्ग छोटे-छोटे संगठनों के माध्यम से विभिन्न वर्गों में एक सूत्रता स्थापित करके “…तक भ्रष्टाचार, मिलावट आदि कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध सशक्त प्रयास शुरू करें।”( संपादकीय 16 सितंबर 1976)
राजनीति और व्यापार के अपवित्र गठबंधन पर पत्र ने भारी कड़वाहट के साथ लिखा कि “आज अधिकांश जमाखोरों एवं अन्य असामाजिक तत्वों को दिए गए व्यापार संबंधी लाइसेंसों की फाइलों पर सत्ताधारी दल के बड़े-बड़े स्तंभों की सिफारिशें मौजूद हैं। इसलिए जरूरी यह है कि पढ़े-लिखे लोगों की छोटी-छोटी बैठकें और सभाएँ हों। इसी से असामाजिक तत्वों के दमन का मार्ग प्रशस्त होगा ।”(संपादकीय 24 सितंबर 1973)
30 सितंबर 1973 के अंक के संपादकीय में सहकारी युग ने संगठन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री कामराज के विचारों और मनःस्थिति का आकलन किया और पाया कि “आजादी की लड़ाई का यह महान सेनानी आज अशक्त हो चुका है तथा अनेकानेक दुविधाओं में और निराशा में ग्रस्त है ।” सवा पृष्ठ के लेख में पत्र ने कामराज के इस विचार से सहमति प्रकट की कि “आज सभी राजनीतिक दलों के प्रति जनता का विश्वास बुरी तरह डूब चुका है।” किंतु कहा कि “इसके लिए वह स्वयं और उनकी अविभाजित कांग्रेस के षड्यंत्र पूर्णतया उत्तरदाई हैं, क्योंकि देश-विभाजन के पूर्व कांग्रेस में त्यागी और तपस्वी थे किंतु कांग्रेस विभाजन के पूर्व जो तत्व इस दल में आए ,उनमें से एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जो सत्ता की शक्ति का दुरुपयोग एवं वहशियाना शोषण करना चाहते थे ।”
निष्पक्ष राजनीतिक दृष्टि रखते हुए सहकारी युग ने महसूस किया कि “विरोध की जागरूकता नितांत आवश्यक है ।” किंतु साथ ही खेद प्रकट किया कि “भारत के विरोधी दल सत्ता प्राप्ति के स्वप्नों में ही मदहोश होकर लड़खड़ा रहे हैं और गालियाँ बक रहे हैं ।” …..विरोधी दल के नेताओं की भारत में हर बुराई के लिए कांग्रेस और इंदिरा को उत्तरदाई ठहराने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए पत्र ने कहा कि “प्रायः सभी विरोधी दलों के वरिष्ठ स्तंभों का राजनीतिक उद्गम स्थल कांग्रेसी था और सत्ता प्राप्ति में असफल होने के बाद ही इन नेताओं ने देश में जातिवाद ,व्यक्तिवाद और क्षेत्रवाद के आधार पर संस्थाएं खड़ी कीं।”( संपादकीय 13 अक्टूबर 1973)
व्यंग्य का उत्कृष्ट नमूना है ,25 अक्टूबर 1976 का संपादकीय।….” मिलावट चलने दो ,इसे अपराध न कहो” यानि “चुनाव समीप आ रहे हैं और देखिए फरीदी और राज नारायण ,चरण सिंह और बाजपेई ,गुप्ता और पीलू मोदी मिल रहे हैं। यह कितनी उम्दा मिलावट है और इसमें किस कदर सलीका है ।”
रामपुर कांग्रेस अपनी शक्ति का उपयोग रामपुर के विराट हित के लिए नहीं कर सकी है। यहाँ तक कि मौलाना आजाद के रामपुर से जीतने और मंत्री बनने के बाद भी उनके पास रामपुर कांग्रेस के नेता गए तो बस किसी अफसर के स्थानांतरण की फरियाद लेकर और मौलाना ने माथा ठोक लिया था यह कहकर कि क्या रामपुर को और किसी स्कीम की ,तरक्की की जरूरत नहीं है ? “(11 नवंबर 1973 संपादकीय)
कांग्रेस की राजनीति पर उपरोक्त बेबाक टिप्पणी करने का अवसर था ,रामपुर जिले के सरदार चंचल सिंह का उत्तर प्रदेश में मंत्री बनना ।
रामपुर की राजनीति को राजमहल में बंदी बनाया जाना सहकारी युग को अस्वीकार था । जनतंत्र के पक्षधर इस पत्र ने प्रमुखता से प्रथम पृष्ठ पर जनता की जनतांत्रिक आवाज को स्वर दिया। फलस्वरुप उत्तर प्रदेश के स्वायत्त शासन विभाग के उप मंत्री श्री आगा जैदी के सम्मुख पत्रकारों, जिले के स्थानीय निकायों के अध्यक्षों और वरिष्ठ नेताओं के मध्य एक पत्रकार (जो निश्चय ही श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त थे) के व्यक्त इस आक्रोश को अभिव्यक्ति दी कि समाजवाद और गरीबी हटाओ के नारों पर नवाब खानदान के महलों में राजनीति को गिरवीं रखकर कांग्रेस हाईकमान ने अपने आदर्शों का बुरी तरह हनन किया है।”( 12 दिसंबर 1973 )
कहने का तात्पर्य यह है कि सहकारी युग का 15 वाँ वर्ष राजनीतिक जागरण और जनमानस को झकझोरने से काफी हद तक प्रभावित रहा । राजनीति पत्र का प्रिय विषय रहा और जनता में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना तथा उसे मार्गदर्शन प्रदान करते हुए एक सुयोग्य नेतृत्व विकसित करना पत्र की मुख्य चिंतन धारा थी । यह वही दौर था ,जब देश में व्यापक मोहभंग की प्रक्रिया चल रही थी और जनता अपने नेताओं से पूरी तरह निराश हो चुकी थी । सहकारी युग ने बखूबी अपनी इस भूमिका को अमली जामा पहनाया और लोक-शिक्षण के एक प्रभावी औजार के रूप में कलम का इस्तेमाल करके जनता को सही-सही लोकतांत्रिक रास्ता दिखाया ।
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समाप्त

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