सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक का नौवाँ वर्ष 1967-68 : एक अध्ययन
सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक रामपुर उत्तर प्रदेश का नौवाँ वर्ष 1967 – 68 : एक अध्ययन
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समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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1967 का वर्ष भारतीय राजनीतिक आकाश में गहरे उथल-पुथल का वर्ष रहा। अनेक प्रांतों में गैर – कांग्रेसी सरकारें प्रथम बार बड़ी संख्या में अस्तित्व में आईं। इतना ही नहीं अपितु केंद्रीय राज्य सत्ता में भी कांग्रेस की नींव हिलने लगी और समग्र वातावरण काफी हद तक कांग्रेस विरोधी बनता चला गया। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष कामराज के हवाले से सहकारी युग ने 20 पृष्ठीय स्वतंत्रता दिवस विशेषांक 1967 के संपादकीय में लिखा कि भारतीय जनता अब अपने अधिकार और उसके प्रयोग के प्रति जागरूक होती जा रही है तथा कांग्रेस के सत्ताधारी व्यक्तियों द्वारा गत 20 वर्षों में की गई उपेक्षा का प्रत्युत्तर दे दिया गया है। सहकारी युग के मतानुसार 1967 के चुनावों में जनता ने जो कुछ किया वह इस बात का प्रतीक है कि शासक वर्ग सेवक बनकर रह सकता है निरंकुश तानाशाह नहीं । उत्तर प्रदेश में पराजित कांग्रेस द्वारा उर्दू को राज्य की दूसरी भाषा बनाए जाने का नारा लगाने को सहकारी युग ने धर्म और भाषा के आधार पर भारतीय जनता की भावनाएं उभारने वाले घातक मार्ग की संज्ञा दी और कहा कि यह तो राज्य की उर्दू भाषी जनता और विधानसभा के उर्दू भाषी सदस्यों की बुद्धियों पर पर्दा डालने का एक घटिया प्रयत्न है । पत्र ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने के नारे को राजनीतिक फरेब से भरा और वातावरण में विष घोलने का काम करने वाला बताया । सहकारी युग ने क्षुद्र भाषाई विवाद का परित्याग करने और संकुचित राजनीतिक लाभ उठाने की कामना छोड़कर महंगाई ,बेकारी और बेरोजगारी के खिलाफ लड़ाई लड़ने तथा सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के निर्माण की दिशा में जनता और सरकार की सक्रिय सहभागिता की अपेक्षा की ।(संपादकीय 15 अगस्त 1967 )
इसी अंक के मुख पृष्ठ पर पत्र ने गाँधीजी को उद्धृत करते हुए भाषा के प्रश्न को राजनीति से संबद्ध करने को अत्यंत घातक बताया और संपादक की ओर से एक लघुकथा (शीर्षक लघुकथा नहीं था )इस प्रकार प्रकाशित की :- “दो व्यक्ति भोजन न मिलने के कारण मर रहे थे । उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी । गुजरने वाले नेताओं ने पूछा कि तुम कौन हो ? कहां रहते हो ? किस को वोट दिया है ? तो आवाज नहीं निकल सकी लेकिन बमुश्किल तमाम हाथ उठाकर पिचके पेट और सूखे मुंह की तरफ इशारा किया । हमदर्दी दिखाने वाले नेता समझकर नासमझ बन गए लेकिन पानी की कुछ बूंदे उनके मुंह में डालीं । कुछ जान आई तो सिर्फ इतना कहा -रोटी चाहिए। बेचारे नेता यह न समझ सके कि मरने वालों ने रोटी हिंदी में मांगी या उर्दू में ?”
उपरोक्त कथा स्पष्ट करती है कि भाषा का धर्म बेकारी और गरीबी के दौर में सिर्फ रोटी होता है और यह भी कि राजनीति के नाम पर लगाए गए नारे बहुधा भरे पेट की ईजाद होते हैं जबकि बहुसंख्यक जनता भूखे पेट की तरक्की के लिए मात्र रोटी की मांग करती होती है ।
9 सितंबर 1967 को सहकारी युग ने “उर्दू अलग भाषा नहीं ,हिंदी का लिपि रूपांतर है “शीर्षक से एक प्रष्ठ का लंबा लेख लिखा और हिंदी-उर्दू की एकता को स्थापित करते हुए उर्दू की फारसी लिपि के स्थान पर देवनागरी लिपि के अपनाने का आग्रह करते हुए एक राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा का मत प्रतिपादित किया ।
धर्म और भाषा विषयक संकीर्णताओं के संदर्भ में संपादकीय लिखकर कहा कि “एक कौम दूसरी कौम से अलग रहकर खुशहाली का रास्ता अख्तियार नहीं कर सकती बल्कि मुल्क की बात सामने रखकर ही तरक्की का रास्ता बुलंद होगा। हिंदुस्तान में मजहब का नाम लेकर गुमराह करने की जो कोशिशें कभी-कभी की गई हैं उनके अंजाम एक मिनट के लिए भी अच्छे नहीं हुए हैं । लिहाजा हम लोग इस बात को बखूबी समझ लें कि कहीं खुदगर्ज लोग हमारे अमन को तोड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं ।(संपादकीय 16 सितंबर 1967)
गंभीर रूप से अस्वस्थ प्रखर राजनीतिज्ञ डॉ. राम मनोहर लोहिया के स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हुए सहकारी युग ने उन्हें “जनतंत्र के वरदान” शीर्षक से अभिनंदित किया और उन्हें उन गिने-चुने व्यक्तियों में बताया जिन्होंने कभी भी सत्ता और शक्ति की पूजा नहीं की अपितु उसे मदग्रस्त होने से बचाने के लिए हर संभव प्रयत्न किया।” पत्र ने स्पष्ट किया कि “इसका यह अर्थ नहीं कि सत्ता और शासन से उनका बैर का संबंध था बल्कि डॉक्टर लोहिया ने विरोध के द्वारा शासन की रस्सियां कसकर अपने मजबूत हाथों में थामीं। वस्तुतः ऐसे डॉ राम मनोहर लोहिया भारतीय जनतंत्र की आत्मा और इस देश के लिए वरदान हैं।”( संपादकीय 7 अक्टूबर 1967)
उपरोक्त अंक के ही एक अन्य संपादकीय में परिवार नियोजन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए आग्रह किया कि इस महत्वपूर्ण कार्य में “जनता और सरकार गाड़ी के दो पहियों के समान अपनी जिम्मेदारी को निभाएं क्योंकि यदि आबादी पर नियंत्रण नहीं हुआ तो भारतीय जनजीवन भार स्वरूप महंगा तथा कड़वाहट भरा बनता चला जाएगा ।” इतिहास ने सिद्ध कर दिया कि सहकारी युग की चेतावनी बिल्कुल सही थी । उपरोक्त अंक के ही मुखपृष्ठ पर “ज्ञान मंदिर में गांधी जयंती” शीर्षक से रामपुर की एकमेव साहित्यिक संस्था ज्ञान मंदिर में 2 अक्टूबर को श्री के. एन. प्रसाद जिला न्यायाधीश रामपुर की अध्यक्षता में हुए कवि सम्मेलन की रिपोर्ट छपी है जो पत्र की साहित्यिक सुरुचि तथा हिंदी और ज्ञान मंदिर के प्रति उसकी आत्मीयता की द्योतक भी है । पत्र ने टिप्पणी दर्ज की है कि “संस्था भवन के प्रांगण में उसकी क्षमता से अधिक लोग उपस्थित थे। ” उपरोक्त कवि सम्मेलन में सर्व श्री कल्याण कुमार जैन शशि, प्रोफेसर शिवा दत्त द्विवेदी ,प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंघल ,ऋषि कुमार चतुर्वेदी ,रतन बिहारी लाल एडवोकेट ,महेश राही ,लक्ष्मी नारायण पांडे ,ए.सी. भटनागर “श्याम चंद्र” (लखनऊ), कर्नल नवरत्न सिंह चौहान( पूना), शाद ,ओमकार शरण ओम, मुन्नू लाल शर्मा ,कंचन ,पाठक ,राम बहादुर सक्सेना ,विष्णु स्वरूप ,हीरालाल किरण, वीरेंद्र मिश्र ने कविता पाठ किया था ।
रामपुर में परिवार नियोजन के प्रचार कार्यक्रम का दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम साहब द्वारा उद्घाटन को 19 नवंबर 1967 के अंक में मुखपृष्ठ पर सहकारी युग ने प्रमुखता से प्रकाशित किया । पत्र ने इमाम साहब के परिवार नियोजन प्रचार विषयक विचारों को काफी महत्व देते हुए उन्हें काफी आदर के साथ स्थान दिया । इतना ही नहीं उसने इमाम साहब के भाषण के बीच नारेबाजी करने वाले कुछ धर्मांध व्यक्तियों की तीव्र निंदा की जिन्होंने ऐसा करके रामपुर की उस तहजीब पर धब्बा लगाने की कोशिश की जिसका जिक्र फख्र के साथ किया जाता है ।दरअसल परिवार नियोजन सहकारी युग की दृष्टि में राष्ट्रीय जन आंदोलन बनने की अपेक्षा रखता है और इस लिहाज से इसके प्रचार-प्रसार की हर मुमकिन कोशिश को पत्र ने अपना कर्तव्य समझकर किया।
एक अखबार के लिए यह जरूरी होता है कि वह सदा विपक्ष की मुद्रा अख्तियार करे, भले ही सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो। पत्रकारिता के तेज की रक्षा के लिए पत्रकार को सतत प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वाह करना ही होता है । सहकारी युग ने सदा सरकार को झकझोरने की बातें कहीं। 1967 में उत्तर प्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी मगर सहकारी युग को यह भी रास नहीं आई। उसे संविद-सरकारें कांग्रेस का नया संस्करण जान पड़ीं और वह यह कह उठा कि सरकार से जुड़े तमाम राजनीतिक दल कृपया अपने अंतर को झांक कर देखें और तय करें कि कांग्रेस पर लगाए जाने वाले समस्त आरोप क्या उन पर भी लागू नहीं होते ? संविद सरकार से सहकारी युग का मोहभंग इतनी तीव्रता से हुआ कि उसे कहना पड़ा कि कांग्रेस के नेताओं ने जो कथित भ्रष्टाचार , सत्ता का मद आदि 17 वर्ष में सीखा था ,वह आज की सत्ताधारी पार्टियों ने केवल 6 मास में सीख लिया ।”(संपादकीय 10 दिसंबर 1967)
1967 में चले ऐतिहासिक हिंदी आंदोलन जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा के पद पर हिंदी को वास्तविक रूप से आसीन करना और इस संबंध में केंद्रीय शासन पर दबाव डालना था सहकारी युग ने उस आंदोलन का समर्थन किया तथापि उग्रता अपनाते हुए कुछ नौजवानों द्वारा साइन-बोर्डों को कोलतार से रँगने पर ऐतराज भी किया । दरअसल सहकारी युग की मंशा तो यह थी कि हिंदी प्रेमी युवक नब्ज को पकड़ें यानी ठोस काम करते हुए हिंदी के सम्मान- गौरव को प्रामाणिक रूप से ऊंचा दर्जा दिलाएँ अर्थात वह बजाय जनता में डर पैदा करने के रामपुर से चुने गए संसद सदस्य के सामने घेरा डालें और उन्हें बताएं कि वह भाषा- विधेयक के विरोध में हाथ उठाएं वरना रामपुर छोड़कर केरल या मद्रास तशरीफ ले जाएँ। इसी तरह जिले के हिंदी प्रेमी नौजवान उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्यों के पास जाएं और उन्हें समझाएं कि वह दिल्ली जाकर विधेयक का विरोध करें।”( संपादकीय 15 दिसंबर 1967 )
“शिक्षा और शिक्षार्थी” विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए सहकारी युग ने मत व्यक्त किया कि यद्यपि स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात की शिक्षा पद्धति में अभी कोई विशेष अंतर नहीं है तो भी “स्वतंत्रता के पूर्व का छात्र अध्ययन में रुचि रखता था ,व्यक्तिगत विकास के लिए संघर्षरत रहता था और यदि राजनीतिक नेता गण देश की आजादी की लड़ाई के लिए उसका योग ले सके तो वह प्राणों की आहुति देकर अपनी योग्यता सिद्ध करता था । किंतु आज तो राजनीतिक नेतागण विनाशक गतिविधियों में इनका प्रयोग करके अपना उल्लू सीधा करते हैं।”( संपादकीय 26 दिसंबर 1967 )
20 पृष्ठ के सुसज्जित गणतंत्र दिवस विशेषांक 1968 में यद्यपि अनेक महत्वपूर्ण लेख ,कविताएं ,कहानियां हैं तथापि 17 फरवरी 1968 का संपादकीय अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है । पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विदाई सहकारी युग की आत्मा को गहरे वेध गई । दीनदयाल जी को “देशभक्त गंभीर विचारक महान नेता” बताते हुए पत्र ने कहा कि “दीनदयाल जी को जनसंघ का नेता कहना उनकी महानता पर आक्षेप होगा । वास्तव में वह तो संपूर्ण देश के जन्मपत्र को सामने रखकर समग्र देश और इस पवित्र भू पर विचरण करने वाले समाज की सेवा में संलग्न थे।” दीनदयाल जी के साथ अपनी वैयक्तिक आत्मीयता का उल्लेख करते हुए संपादक का आगे कथन है:-” 51 वर्ष की अवस्था वाले इस धीर गंभीर समुद्र के समीप जब इन पंक्तियों का लेखक एक – एक घंटे तक बैठकर वार्तालाप करता था तो बार-बार उसका मस्तक महान व्यक्तित्व के चरणों में झुका था । कुछ ही दिन पहले का प्रसंग है उनका वक्तव्य लेने के लिए मैं पहुंचा । यह भेंट लगभग 12 वर्ष के बाद हुई थी किंतु फिर भी पहचान लिया। उत्तर प्रदेश में सर उठा रही कतिपय सांप्रदायिक शक्तियों के बारे में उनका वक्तव्य लेना था । पत्रकार होते हुए भी राज्य में सर उठा रही राष्ट्र विरोधी शक्तियों के प्रति मेरे हृदय में एक विचित्र घृणा थी जिसे उन्होंने पहचान लिया और बोले -वक्तव्य के साथ कुछ खाते-पीते रहना ठीक होगा । मैं एकदम धरातल पर आ गया और यह समझ गया कि जिस व्यक्ति को इस विषय में बहुत अधिक गर्म होना चाहिए था ,वह तो शांत है किंतु जो केवल निष्पक्ष दर्शक है वह व्यर्थ में ही गर्म है । पंडित जी ने वक्तव्य दिया , राष्ट्र विरोधी शक्तियों पर कड़ी दृष्टि रखने की मांग की किंतु एक भी ऐसा शब्द मुख से नहीं निकाला जिससे गर्माहट का अहसास होता हो । उनका स्वभाव ,उनका तरीका, उनकी विचार पद्धति को यदि आज का राजनीतिक समाज अपना ले तो निसंदेह हमारे चरण उस और बढ़ने लगेंगे जहां देशभक्ति और परिपक्व दृष्टिकोण के आधार पर समाज का उत्थान हो सकता है ।”
रामपुर के तरुण साहित्यकार और उपन्यास लेखक 38 वर्षीय श्री आनंद सागर कुलश्रेष्ठ के निधन पर 25 फरवरी 1968 के सहकारी युग में मुख पृष्ठ पर श्रद्धांजलि अर्पित कर दिवंगत रचनाकार को भावपूर्ण श्रद्धा सुमन अर्पित किए । इसी अंक में शशि जी ने श्रद्धांजलि कविता लिखी और 2 मार्च 1968 के अंक में ज्ञान मंदिर में इस संबंध में शोक सभा का समाचार तथा हीरालाल किरण की श्रद्धांजलि कविता छपी । यह सब बातें साहित्यिक-दुर्घटनाओं के प्रति सहकारी युग की वेदना को काफी हद तक दर्शाती हैं।
ज्ञान मंदिर में कवि गोष्ठियों का समाचार सहकारी युग में प्रायः छपा है। इन समाचारों में एक विशेष उत्साह होता है और प्रमाण होता है उस मनोयोग का जिसके बल पर कोई समाचार लेखक उस गोष्टी की प्राणवान रिपोर्टिंग कर सकता है । 15 मार्च के अंक में प्रथम पृष्ठ पर छपी गोष्ठी की रिपोर्ट ऐसी ही उपलब्धि है । इसी अंक का संपादकीय होली को सांप्रदायिक सद्भाव का त्यौहार मानकर मनाने का आग्रह करता है और उसे किसी जाति विशेष से संबद्ध न करके व्यापक और सर्वप्रिय बनाने की दिशा में प्रयत्न करने का आह्वान करता है ।
रामपुर से चुने गए लोकसभा सदस्य के क्रियाकलापों का आकलन 26 अप्रैल 1968 के संपादकीय में करते हुए पत्र लिखता है कि जनप्रतिनिधि ने रामपुर के विकास के लिए पार्लियामेंट के अंदर और बाहर एक शब्द भी नहीं कहा।
10 मई 1968 का संपादकीय इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के स्मारक के रखरखाव के प्रति सरकार की उपेक्षा के प्रति गहरा रोष व्यक्त करता है कि देश की आजादी की लड़ाई में शहीद हुए महापुरुषों के स्मारक बनाने में ,उन स्मारकों की सुव्यवस्था करने में हम और हमारी सरकार जिस प्रकार उपेक्षा दिखा रही है यह शर्म की बात है। आजाद ! चंद्रशेखर आजाद ! अपने में एक युग थे। एक इतिहास थे ।उन्होंने बलिदानों की एक श्रंखला बनाई और हिंसा-अहिंसा के तर्क में न फँसकर देश से गोराशाही को मिटाने का संकल्प लिया। पत्र प्रश्न करता है क्या हम इतने साधनहीन हैं कि शहीदों के स्मारक पर प्रकाश का प्रबंध भी नहीं कर सकते ?”
रामपुर में बेकारी और बेरोजगारी के खिलाफ पत्र ने जोरदार आवाज उठाई और कहा कि रामपुर नगर के कितने ही उद्योग खत्म हो चुके हैं और शेष भी किसी अच्छी हालत में नहीं है जबकि हमारे निकटवर्ती जिले बरेली और मुरादाबाद हर दिन आगे बढ़ रहे हैं । हमारा रामपुर पीछे हट रहा है। पत्र ने इसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी रामपुर के राजनीतिक समाज पर डाली क्योंकि उन्होंने रामपुर की जनता से विश्वास मांग कर धोखा दिया है और रामपुर की तरक्की की बात एक मिनट के लिए भी नहीं सोची।”( संपादकीय 18/ मई 1968)
रामपुर प्रदर्शनी का उद्देश्य केवल मनोरंजन बनाए जाने पर पत्र ने एतराज किया । उसने कहा कि यद्यपि प्रदर्शनी को औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी के नाम से पुकारा जाता है किंतु जनता में उद्योग और कृषि से संबंधित रुचि उत्पन्न करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए जाते। इतना ही नहीं जिले के कृषक वर्ग से इस प्रदर्शनी का संबंध प्रायः नहीं के बराबर है । यह स्थिति पत्र का आग्रह था कि बदलनी चाहिए।( संपादकीय 25 मई 1968)
3 जून 1968 के अंक में रामपुर प्रदर्शनी कवि सम्मेलन की आधे पृष्ठ से अधिक की अत्यंत सुंदर समीक्षात्मक रिपोर्ट पत्र ने मुख-पृष्ठ पर प्रकाशित की।
स्थानीय पत्रकारों द्वारा अफसरों की चाटुकारिता का आश्रय लिये जाने को पत्र ने सदा ही निंदनीय बताया । उसने पत्रकारिता को उत्तरदायित्वपूर्ण बताते हुए पत्रकारों से आत्मनियंत्रण का आग्रह किया क्योंकि ऐसा न करके चाटुकारिता करते रहने पर तो भिक्षुक और पत्रकार में अंतर ही उसकी दृष्टि में समाप्त हो जाएगा । (संपादकीय 12 जून 1968)
सहकारी युग की कामना थी कि रामपुर नए-नए उद्योगों का घर बने मगर जब स्थिति यह आई कि रामपुर में पहले से स्थापित उद्योग ही उजड़ने लगे तो पत्र की आत्मा रो उठी और उसने भाव विह्वल होकर कहा कि काश ! रामपुर के रहनुमा संसद सदस्य पार्लियामेंट के सामने भूख हड़ताल का झंडा गाड़ दें और चीख-चीख कर कह दें कि रामपुर वालों की रोटी छीनने की कोशिश की जा रही है तो दिल्ली की सरकार हिलती, इतना ही नहीं तो हिंदुस्तान के कोने-कोने से चुने गए पार्लियामेंट के सदस्य भी हिल जाते और मिल मालिक रामपुर के उद्योगों को रामपुर से हटाने की बात सिर्फ सोच कर ही कांप उठते।”( संपादकीय 20 जून 1968)
राजनीति और पत्रकारिता के अपवित्र गठबंधन से उपजी सांप्रदायिकता पर क्षोभ व्यक्त करते हुए सहकारी युग ने लिखा “आज से दस साल पहले हिंदुस्तान के किसी कोने में जाते तो यह सुनने को मिलता था कि रामपुर हिंदू मुस्लिम एकता का एक नमूना था ।”(संपादकीय 27 जून 1968)
इस वर्ष के साहित्यिक वैचारिक रचनाकार हैं : भारत भूषण (मेरठ), डॉक्टर देवर्षि सनाढ्य (हिंदी विभाग त्रिभुवन विश्वविद्यालय काठमांडू नेपाल), आर.सी. भार्गव (जिलाधिकारी रामपुर), महेश राही, रामभरोसे लाल भूषण (मुरादाबाद), कल्याण कुमार जैन शशि, शिवादत्त द्विवेदी (हिंदी विभागाध्यक्ष रजा डिग्री कॉलेज रामपुर), ईश्वर शरण सिंघल, वाचस्पति अशेष (बदायूं), रामावतार कश्यप पंकज, भगवान स्वरूप सक्सेना मुसाफिर (सूचना अधिकारी रामपुर), शांति कुमार विजय , एस. पी. कश्यप आनंद (नैनीताल), श्रीपाल सिंह क्षेम, शिवकुमार कौशिक ,सतीश चंद्र रस्तोगी सरस ,श्याम लाल यादव (न्याय एवं सूचना मंत्री उत्तर प्रदेश), वीरेश चंद्र पंत, आनंद मिश्र शरद (विकास क्षेत्र शाहबाद रामपुर), संजय डालमिया ,ऋषि कुमार चतुर्वेदी ,लखनलाल ,उमाकांत दीप ,गिरिराज शरण अग्रवाल ,एच.सी. सक्सेना (कारागार महानिरीक्षक उत्तर प्रदेश) । उपरोक्त नामों में कुमार विजयी, रामावतार कश्यप पंकज और कल्याण कुमार जैन शशि वर्ष भर अपनी अनेक सुंदर कविताओं से सहकारी युग को समृद्ध करते रहे।