सहकारी युग का आठवां वर्ष 1966-67 : एक अध्ययन
सहकारी युग ,हिंदी साप्ताहिक ,रामपुर ,उत्तर प्रदेश का आठवाँ वर्ष 【 1966 – 67 】: एक अध्ययन
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{समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर ,उत्तर प्रदेश , मोबाइल 99976 15451 }
नोट : सातवें वर्ष 1965 – 66 की फाइल उपलब्ध नहीं है ।
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समर्पित पत्रकारिता उस मिशनरी भावना का नाम है जहां रक्त को स्याही बनाकर लेखनी से पृष्ठ को गौरवान्वित किया जाता है और कलम की वह शक्ति शब्द-शब्द से उभरती है जहां समाज और राष्ट्र को जोड़ने की सामर्थ्य उत्पन्न होती है । ऐसा केवल प्रखर भावनाओं और तीव्र मस्तिष्क के द्वारा ही संभव है अर्थात कलमकार जो लिखे ,उसे अपने मन और आत्मा की संपूर्ण गहराई से अपने अंतरतम में उतार कर लिखे तभी कलम वह वैचारिक विस्फोट बनकर फूटती है जिसका प्रमाण हमें मिलता है सहकारी युग के 20 पृष्ठीय स्वतंत्रता दिवस विशेषांक 1966 के इन संपादकीय शब्दों में :
“आज का पावन दिन हमें उन बीते दिनों की ओर खींच ले जाता है जबकि भारतवासी विदेशी हुकूमत से छुटकारा पाने के लिए जान की बाज़ी तक लगा देने में संकोच नहीं करते थे । केवल एक ही उद्देश्य था भारत माँँ की बेड़ियां कटें। परंतु आज वह उत्साह ,वह कर्तव्य परायणता ,वह देश भक्ति जैसे लोप- सी हो गई है ।”
गौ रक्षा विषयक चल रहे राष्ट्रव्यापी आंदोलन के समाचार तो सहकारी युग ने प्रकाशित किए ही ,24 सितंबर 1966 के अंक में गौ हत्या विरोधी वेदों की ऋचाएं, गांधी ,तिलक तथा अन्य अनेक महत्वपूर्ण मुस्लिमों के विचार भी संकलन रूप में प्रकाशित किए ।
हिंदी को तुरंत व्यवहार में लाने का आग्रह करते हुए सहकारी युग ने राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम को बढ़ाने पर बल दिया और 8 अक्टूबर 1966 को मुखपृष्ठ पर लंबा लेख छापा और अपने जिले में प्रदेश में तथा देश भर में हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए जनता से तमाम तरह का पत्र व्यवहार तथा दैनंदिन जीवन के कामकाज में हिंदी को अपनाने का आग्रह किया ।
इसी अंक में संक्षिप्त किंतु स्थानीय दृष्टि से महत्वपूर्ण समाचार प्रकाशित हुआ है कि : “गत 6 अक्टूबर 1966 को रियासत रामपुर के भूतपूर्व नवाब साहब का शव रामपुर नगर से प्रातः काल पूर्ण राजकीय आदर के साथ उनके सलून में जो रामपुर रेलवे स्टेशन पर खड़ा रहता है ले जाया गया । जहाँ से वह दिल्ली जाने वाली गाड़ी में जोड़ दिया गया है । स्टेशन पर अपने स्वर्गीय नवाब को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए रामपुर के सहस्त्रों नागरिक स्टेशन पर उपस्थित थे । शव जैसा कि स्वर्गीय नवाब साहब की इच्छा थी ईराक में दफन किया जाएगा । दिल्ली से उसे वायुयान द्वारा इराक ले जाया जाएगा ।”
15 नवंबर 1966 के अंक में जबकि 1967 के संसदीय चुनाव निकट आ चुके थे और रामपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर राजा पीरपुर सैयद अहमद मेहंदी और स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर नवाबजादा सैयद जुल्फिकार अली खां उर्फ मिक्की मियां जोर-आजमाइश के लिए मुकाबले पर आ गए थे ,सहकारी युग ने 10 वर्षों से रामपुर का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले श्री मेहंदी की उम्मीदवारी की विस्तार से समीक्षा की और कहा कि “रामपुर कांग्रेस की तरफ से श्री मेहंदी की उम्मीदवारी जनतंत्र और समाजवाद के उसूलों को दफन करने के समान है और रामपुर की परेशानियों से बेखबर व्यक्ति की उम्मीदवारी है ।” पत्र के अनुसार अगर 1962 अर्थात पिछले चुनाव में स्वर्गीय नवाब की कोशिशें न होतीं तो जनाब सैयद अहमद मेहंदी साहब के लिए रामपुर की नुमाइंदगी करना आसान न होता ।
रामपुर में सफाई की शोचनीय हालत पर सहकारी युग ने सदा आवाज उठाई है। 24 नवंबर 1966 को मुखपृष्ठ पर छपी पंक्तियों के भाषा की सुंदरता और व्यंग्य की वक्रता से युक्त कुछ अंश देखिए : ” हमारे शहर की नालियाँ देखने से ताल्लुक रखती हैं। गंदे पानी से लबालब भरी यह नालियाँ मच्छर और मक्खियों का बहुत बड़ा तीर्थ स्थान बनी हुई हैं और नागरिकों के लिए नर्क तथा अभिशाप ।”
राजा पीरपुर सैयद अहमद मेहंदी की लोकसभा सीट से कांग्रेस टिकट पर उम्मीदवारी की चर्चा करते हुए सहकारी युग ने फिर मत व्यक्त किया कि “राजा पीरपुर ने जनता के मध्य अपने कार्यकाल का एक प्रतिशत समय भी नहीं गुजारा और इसकी वजह से रामपुर के लोग उन्हें एक मेहमान तो मान लेंगे लेकिन अपना नुमाइंदा नहीं।”( 15 दिसंबर 1966 )
दूसरी और जनसंघ के टिकट पर रामपुर लोकसभा सीट से डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार की उम्मीदवारी ने सारे रामपुर में एक अनोखी जागृति की लहर पैदा कर दी। सहकारी युग ने जनतंत्र की दृष्टि से राजा पीरपुर अथवा मिक्की मियाँ के चयन के प्रति जनता को सावधान करते हुए कहा कि “डॉ सत्यकेतु सदृश योग्य और विद्वान व्यक्ति का तो रामपुर के संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ना भी रामपुर के लिए बड़े सौभाग्य की बात है ।”
पत्र ने डॉक्टर सत्यकेतु को “एक महान व्यक्ति” और “आदर्श व्यक्ति” बताया क्योंकि “उनका आचरण संदिग्ध रूप से अनुकरणीय है “और कहा कि वह अब तक रामपुर से खड़े होने वाले सभी उम्मीदवारों से श्रेष्ठ हैं। भूतपूर्व राजा-महाराजा जनप्रतिनिधि बनकर भी जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते हैं। इस विषय पर पत्र ने लिखा कि “जनतंत्र और राजसी परंपराओं का आपस में कतई संबंध नहीं है और इसलिए शायद न चाहते हुए भी राजा साहब पीरपुर रामपुर के लिए दस वर्षों में कुछ नहीं कर पाए । इतना ही नहीं अपितु योग्यता और अनुभव की दृष्टि से डॉक्टर सत्यकेतु का मिक्की मियाँ से मुकाबला करने के लिए कोई भी समझदार व्यक्ति तैयार नहीं होगा।”
सांप्रदायिकता को राजनीति से हटाने की आवश्यकता पर पत्र ने जोरदार मत व्यक्त किया और अनुभव किया कि डॉ सत्यकेतु ने अपने चुनाव घोषणापत्र में या चुनाव सभाओं में कहीं भी घटिया सांप्रदायिक प्रचार को जगह नहीं दी । पत्र ने स्पष्ट मत व्यक्त किया कि “डॉ सत्यकेतु संकुचित दृष्टिकोण से बहुत दूर हैं ।”(संपादकीय 3 फरवरी 1967 )
26 फरवरी 1967 के मुख्पृष्ठ पर डॉक्टर सत्यकेतु ने पराजय के उपरांत एक लंबा वक्तव्य जनता के नाम जारी किया, जिसमें संतोष व्यक्त किया गया था कि उन्होंने “चुनाव के संपर्क में किसी पर न कोई आक्षेप किया और न सांप्रदायिक व जातिगत भावनाओं का प्रयोग किया ।”
इसी अंक के संपादकीय ने इन चुनावों में रामपुर में भीषण सांप्रदायिकता की लहर उत्पन्न किए जाने को रामपुर की एकता के माथे पर कलंक बताया और केंद्रीय स्तर पर श्रीमती इंदिरा गाँधी और श्री कामराज को स्मरण दिलाया कि आज जबकि देश को प्रगतिवादी विचारों की आवश्यकता है ,यदि सांप्रदायिक वृत्ति को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिला तो उसके दुष्परिणामों की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस और कांग्रेस सरकार की होगी ।
रामपुर के रत्न प्रसिद्ध आशु कवि श्री कल्याण कुमार जैन शशि के काव्य कौशल पर प्रकाश डालती एक रिपोर्ट के कुछ अंश देखिए :
” रामपुर के राजकीय डिग्री कॉलेज में 29 जनवरी 1967 को एक कवि सम्मेलन के.जी.के. कॉलेज मुरादाबाद के विद्वान प्रोफेसर श्री शिव बालक जी की अध्यक्षता में हुआ । अध्यक्ष महोदय ने कवि सम्मेलन का आरंभ करते हुए रसिया ,साहित्य में रसिया तथा कनरसिया -तीन प्रकार के श्रोताओं का वर्णन किया । आपने कनरसिया श्रोताओं की निंदा करते हुए कहा कि यह केवल कानों का मजा लेने आते हैं। रस तथा साहित्य से उनका कोई वास्ता नहीं है । चंद्र प्रकाश जी ,कंचन जी ,राम बहादुर जी ,हुल्लड़ जी आदि कवियों के पढ़ लेने के बाद श्री तिवारी जी को बुलाया गया । तिवारी जी कवि के साथ गायक भी हैं परंतु उन्होंने गाकर अपनी कविता नहीं पढ़ी। इस पर तुरंत हमारे अध्यक्ष महोदय ने उन्हें टोका कि तिवारी जी आपकी कविता इस प्रकार नहीं सुनी जाएगी । अपनी तर्ज में गाकर सुनाओ । तिवारी जी ने गाकर पढ़ने में कुछ आनाकानी की तो अध्यक्ष महोदय ने श्रोताओं को सावधान किया कि जब तक तिवारी जी कविता गाकर न पढ़ें, तब तक आप लोग अपने कान बंद रखिए । यह सुनकर आशु कवि कल्याण कुमार शशि ने तत्काल निम्नलिखित चार पंक्तियाँ सुनाकर श्रोता गण को आनंद विभोर कर दिया :
शिव बालक जी कनरसियों का ,करते हैं अपमान
गाकर कवि न पढ़े तो कहते ,बंद कीजिए कान
मुँह में राम बगल में ईंटें, यह दोरुखी जुबान
कनरसिए को बुरा बताता ,कनरसिया विद्वान
शशि जी की इन पंक्तियों पर हॉल में बड़ा ठट्ठा लगा और इन पंक्तियों को कई बार – बार सुना गया । “(3 फरवरी 1967)
पत्रकारिता के स्तर को ऊंचा उठाने का आग्रह सहकारी युग ने अपने सहयोगी पत्रकारों से बार-बार किया । उसने सदा यही निवेदन किया कि स्थानीय पत्रकार अपनी आलोचना के स्तर को उन्नत करें तथा प्रभावशाली बनने की दिशा में अग्रसर हों। पत्र के अनुसार आज रामपुर के पत्रकारों की वाणी प्रभावहीन है । उसमें या तो खुशामद है या व्यक्तिगत एवं तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति का प्रयास । स्थानीय विभिन्न सरकारी कार्यालयों से यह सुनने को मिल रहा है कि पत्रकारगण अधिकारियों या उनके अधीनस्थ कम वेतन वाले कर्मचारियों के विरुद्ध भी समाचार प्रकाशित करते हैं और फिर उसके खंडन के लिए संदेश भेजते हैं। यह स्थिति बड़ी भयानक है और जो पत्रकार इस भ्रष्ट मार्ग से हटने के लिए सिद्ध नहीं है वह इसके परिणामों के लिए भी तैयार रहें। पत्रकारिता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि दासता के युग में जबकि पत्रकार पर शासन की संदिग्ध दृष्टि का पहरा था भारतीय पत्रों ने जो आवाज उठाई उसने क्रांति की ज्वाला को प्रज्ज्वलित किया और आज भी जब उसका स्मरण करते हैं तो मस्तक नत हो जाते हैं किंतु दुर्भाग्य कि स्वतंत्रता के काल में जबकि हमारी वाणी पर कोई प्रतिबंध नहीं है हम इसका दुरुपयोग कर रहे हैं ।”(संपादकीय 20 मई 1967)
कांग्रेस सरकार द्वारा भूतपूर्व राजा महाराजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करने के निर्णय को सहकारी युग ने ऐतिहासिक रूप से महान जनतांत्रिक कार्य की श्रेणी में प्रशंसनीय बताया और इस निर्णय की स्वतंत्र पार्टी के नेता श्री राजा जी द्वारा की गई आलोचना की कड़ी निंदा करते हुए लंबा संपादकीय लिखा । श्री राजगोपालाचारी ने राजाओं की काफी तरफदारी की थी जिस पर पत्र की राय थी कि “राजाजी की उक्त वकालत से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतंत्र पार्टी का जन्म इस वर्ग के हितों की रक्षा के लिए हुआ है तथा उसका जनतंत्र की परंपराओं और भारतीय जनता से कोई संबंध नहीं है ।” अत्यंत ओजपूर्ण शैली में पत्र धाराप्रवाह लिखता है “स्वतंत्र पार्टी के जन्मदाता कुछ राजाओं की हिमायत करते समय उन करोड़ों इंसानों को भूल गए जिन्हें एक वक्त आधे पेट भोजन भी नहीं मिलता जबकि वर्षानुवर्ष से जनता का शोषण करने वाला यह वर्ग आज भी जवाहरातों में पल रहा है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अब तक इन राजाओं को नव्वे करोड़ रुपए का भुगतान किया जा चुका है तथा केवल 1967 – 68 में 5,03,99,000 रुपए (पाँच करोड़ तीन लाख निन्यानवे हजार) दिए जाने की व्यवस्था है। अगणित टैक्सों से दबी जा रही जनता पर इन राजाओं का बोझ किस उसूल से सही है, इस बात का कारण क्या राजा जी के पास है ? आज के जनतांत्रिक युग में जबकि आदमी 16 घंटे काम करके रोटी खाता है इन राजाओं को बिना कोई श्रम किए ऐश और ठाठ मनाने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए ? “(संपादकीय 15 जुलाई 1967 )
इसी अंक में रामपुर में “भीषण गंदगी: भयानक भी बीमारी फैलने की आशंका” शीर्षक से मुखपृष्ठ पर सहकारी युग ने स्थानीय सफाई व्यवस्था में लापरवाही की ओर जोरदार आवाज उठाई है और आने वाले अन्य अनेक अंकों में इस प्रश्न को तर्कसंगत रूप से यह पत्र उठाता रहा ।
सहकारी युग की जनवादी दृष्टि और जनतंत्र के प्रति उसकी निष्ठा अद्वितीय रही है । उसने राजा महाराजाओं के हाथों भारतीय प्रजातंत्र को बंधक बनाने का सदा विरोध किया और इस हेतु जनतंत्रात्मक विचारधारा को पुष्ट करने के लिए 1967 में श्री डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार का खुलकर और जमकर समर्थन किया तथा रामपुर में राजशाही के विरुद्ध जनसंघ की समर्पित और निःस्वार्थ संगठनात्मक प्रवृत्तियों का हृदय से आदर किया । पत्र ने चुनावों को जनतंत्र की नीव सुदृढ़ करने वाला हथियार माना और इस हेतु सच्चे अर्थों में रामपुर में उदार , सहिष्णु और जनतंत्र के मूल्यों में आस्था रखने वाले सर्वधर्म समभावी जनप्रतिनिधित्व को आगे बढ़ाने में योग दिया। ऐसा करते हुए उसके सामने कभी कोई स्वार्थ अथवा राग नहीं रहा ।उसने तो लोकतंत्र के विशुद्ध निष्ठावान अंग होने के नाते लोकतांत्रिक आचार विचार को पल्लवित पुष्पित करना अपना कर्तव्य समझते हुए ही ऐसा किया । इतना ही नहीं विरोधी दल के प्रमुख नेता श्री राजगोपालाचारी से लंबी मतभिन्नता पत्र ने स्पष्ट रूप से उजागर की और श्री राजा जी की गलत नीतियों और राजा – महाराजाओं से जोड़-तोड़ करके भारतीय आम जनता की उपेक्षा करने वाली विचारधाराओं की प्रखर आलोचना में भी सहकारी युग अग्रणी रहा । यह इस पत्र की ऊंची दर्जे की आलोचना-स्तर को दर्शाता है । इतना ही नहीं साहित्य के स्तर की सूक्ष्म किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं को दर्ज करने में भी यह पत्र सफल रहा । श्री शशि जी की आशु काव्य-कौशल क्षमता को दर्ज करती एक घटना इसी वर्ष की सहकारी युग फाइल का ऐतिहासिक दस्तावेज है । संक्षेप में स्थानीयता को आदर देते हुए भी पत्र ने राष्ट्रीय दृष्टि को सदा अपने हृदय में सर्वोच्च स्थान दिया और यह सिद्ध कर दिया कि जनतंत्र और पत्रकारिता का शीर्ष भले दिल्ली और मुंबई हो किंतु इसका स्पंदन भारत के किसी छोटे से नगर -रामपुर- में भी अत्यंत तीव्रता और अत्यंत शुद्ध निष्ठा से अनुभव किया जा सकता है।
इस वर्ष के साहित्यिक रचनाकारों में कवि श्री कुमार विजयी का नाम प्रायः वर्ष भर फाइल पर छाया रहा । जो अन्य महत्वपूर्ण रचनाकार रहे वह इस प्रकार हैं: भारत भूषण (मेरठ), रामावतार कश्यप पंकज ,प्रेम ,छाया माथुर ,महेश राही ,कुमारी पुष्पा एम.ए., रामनाथ शर्मा एम.ए. ,श्री कृष्ण उपाध्याय राकेश (बदायूं),वाचस्पति अशेष ,रमेश शेखर ,उमाकांत दीप ,हुल्लड़, शांति स्वरूप जैन ,कल्याण कुमार जैन शशि, शारदा प्रसाद वर्मा (लखनऊ), सतीश चंद्र भटनागर (मुरादाबाद), सत्य प्रकाश पांडे (मुरादाबाद), अमरनाथ अग्रवाल बी.एससी., डॉक्टर स्वर्ण किरण (पटना), श्रीराम शर्मा आचार्य (मथुरा), ज्वाला प्रसाद शाही ,लखन सिंह भदौरिया शैलेंद्र । इस प्रकार अनेक महत्वपूर्ण तात्कालिक तथा सार्वकालिक लेखों ,कविताओं ,कहानियों और व्यंग्यों को समेटे हुए यह वर्ष साहित्यिक संपदा से युक्त रहा।