*सहकारी-युग हिंदी साप्ताहिक का तीसरा वर्ष (1961 – 62 )*
सहकारी-युग हिंदी साप्ताहिक का तीसरा वर्ष (1961 – 62 )
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चालीस पृष्ठ के स्वतत्रता दिवस विशेषांक 1961 में छोटा मगर चुभता हुआा एक आह्वान आकृष्ट करता है, लिखा है “क्या आपको साहित्य से प्रेम है ? हिन्दी आपकी अपनी मातृभाषा, से भी प्रेम है ? आजादी के लिए किताबों की आड़ में अंग्रेज और नवाब की रियासत से लड़ने वाली संस्था से प्रेम है ? अगर नहीं है तो होना हो चाहिए और है तो आज ही ज्ञानमन्दिर के सदस्य बनिए ! दस हजार से अधिक पुस्तकों का उपयोग करिए !! हिन्दी और साहित्य की सेवा के लिए।” ऐसा आह्वान सिवाय महेन्द्र गुप्त के सहकारी युग के और कहां हो सकता है ? यह आह्वान महेन्द्र, सहकारी युग और ज्ञान मन्दिर के रिश्ते पर रोशनी डालता है और तपस्या की तीव्रता-प्रखरता का बड़ा भावुकता और वैचारिकता के साथ स्पर्श करा देता है।
सहकारी युग की भाषा और भावनायें तो अपने आप में अनूठी ही हैं। कलम को रक्त अथवा कहिए ऑंसुओं में डुबो कर लिखा गया इसका सम्पादकीय पाठकों के मन-मस्तिष्क को झकझोर कर रख देता है-” आज हम आजाद हुए। तिलक, गोखले, भगत सिह, चन्द्रशेखर आजाद और भारत मॉं के सहस्त्रों वे सपूत जो माता की कोख और माता के दूध को लजाने की स्थिति समाप्त करने के लिए हमेशा गले में फांसो के फंदे और सीने पर पिस्तौल की गोलियों के चिन्ह बना कर आजाद रहते थे और भारत के लिए आजादी लाने की दिशा में हर साधना हर तपस्या और हर कुर्बानी करने के लिए पिता पुत्र सभी से नाता छोड़कर नगर-नगर डगर-डगर मुक्ति का मंत्र फूंकते फिरते थे, वह सब 15 अगस्त 47 को स्वर्ग भारत की स्वतंत्र भूमि पर विचरण करने, स्वच्छ वायु जो अंग्रेजी शासन की जहरीला बू से मुक्त हो चुकी थी, का सेवन करने के लिए उत्सुक थे। किन्तु अच्छा हुआ कि वे समस्त महान आत्मायें धरती पर नहीं आईं और भारतवासियों के हाथों भारत की आजादी की पवित्र भावना की हत्या होते देख स्वर्ग में ही ऑंसू बहाती रहीं। भारत के लिए जिन्होंने रक्त दिया, वे भाग्य- शाली हैं, लेकिन उस पवित्र दान को आजादी के बाद जिस समाज ने कलुषित किया, वे अंग्रेज से भी ज्यादा भयानक, नरक के कीड़ों से भी ज्यादा घृणित और बड़े से बड़े हिंसक पशु से भी ज्यादा बड़े हिंसक मनुष्य रूपधारी पशु है।” (15 अगस्त 1961)
निर्भीकता पूर्वक भारत में पनप रही अराष्ट्रीय सांप्रदायिक गतिविधियों पर तीव्र प्रहार करने में सहकारी युग ने कभी संकोच नहीं किया । 26 अगस्त 1961 के सम्पादकीय में उसने लिखा “मीर जाफर और जयचंद वह लोग हैं जो अपने मुल्क को अंग्रेजों या विदेशियों के हाथों बेचते रहे हैं। अफसोस ! आज मीर जाफर पैदा हा रहे हैं, हमारी कांग्रेस सरकार और स्थान-स्थान पर दिखावटी सेक्युलरिस्ट कांग्रेसी उन्हें ताकत दे रहे हैं। हाल ही का मुस्लिम कन्वेंशन इस बात का जीता-जागता सबूत है।”
रामपुर में सांप्रदायिकता की विष-वर्षा लम्बी चर्चा का प्रारम्भ करते हुए पत्र आगे लिखता है “अब जरा रामपुर के हालात का जायजा लोजिए जहां हिन्दुस्तान की मुखालिफत का जज्बा अंग्रेज और नवाब के जमाने में भी पाला जाता रहा है और बदकिस्मती से आज भी न सिर्फ वह जिन्दा है बल्कि सियासत उसे दूध पिला-पिला कर जिन्दा रखे हुए है।
श्री लाल बहादुर शास्त्री, भारत के गृह मंत्री ने हाल ही में रामपुर के हवाले से जो कुछ कहा, बात शायद उससे कहीं आगे है और अगर इस सिलसिले में सरकार ने कोई कड़ा कदम नहीं उठाया तो हम समझते हैं कि पानी बहुत आगे पहुंच जाएगा। इस बारे में हम रामपुर के देशभक्त कांग्रेसियों से पूछना चाहते हैं कि उन्होंने देशविरोधी ताकतों के बारे में क्या रवैया अख्तयार किया है ?” आगे की पंक्तियों में सहकारी युग ने सुस्पष्ट लिखा कि ” हम यह बता देना चाहते हैं कि फिरकेवारियत को बढावा देकर इलेक्शन जीतने का अंजाम रामपुर आज भुगत रहा है।”
अगले अंक यानि 2 सितंबर 1961 को इसे पुनः शास्त्री जी पर रामपुर में साम्प्रदायिक- अराष्ट्रीय गतिविधि विषयक टिप्पणी पर संपादकीय देने को बाध्य होना पड़ा। पत्र ने ‘वेदना पूर्वक’ लिखा “कोई भी राष्ट्रीय व्यक्ति (नाम) द्वारा श्री लाल बहादुर शास्त्री पर किए गए आक्रमण को किसी प्रकार युक्ति युक्त नहीं मान सकता। गृह मंत्री ने खूब छान कर यह बयान दिया होगा लेकिन क्योंकि इसमें सत्य का अंश ज्यादा है, शायद इसीलिए रामपुर की सियासत इसे गले से न उतार सकी”
प्रणम्य है सहकारी युग की यह स्पष्टवादिता कि जिसने अपने व्यक्तिगत हितों को अनदेखा करके अपने प्रियजनों के अप्रिय व्यवहार पर भी एतराज करने का दुस्साहस किया। संभव है सहकारी युग को निहित स्वार्थ- दृष्टि से आशीष में कमी आई हो या पूर्ण रूपेण अवरुद्ध हो गई हो, तथापि अपनी यथार्थवादी, राष्ट्रवादी सत्य-वाणी से इसने सभी का दिल जीत लिया।
कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र पर प्रश्नवाचक सम्पादकीय उपस्थित करते हुए पत्र लिखता है “कांग्रेस के घोषणा पत्र में साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद का विरोध किया गया है लेकिन यह विरोध ढकोसले के अलावा भी क्या कुछ मायने रखता है ?” (24 सितंबर 1961) लेकिन पत्र महसूस करता है कि “मतदाता के पास सिवाय कांग्रेस को वोट देने के और कोई” विकल्प नहीं है “क्योंकि अन्य राजनीतिक पार्टियों का व्यवहार कोई विशेष संतोषजनक नहीं रहा है, उनसे जनता का समाधान नहीं हो पाया है। लिहाजा कांग्रेस की जीत का राज है मतदाता की विवशता, घोषणा पत्र नहीं।”
3 अक्टूबर 1961 के अंक में सम्पादकीय राष्ट्रपिता गांधी को श्रद्धावनत हो स्मरण करता है कि वह गांधी था “एक लंगोटो पहनकर जो अंग्रेज से भिड़ गया और जर्जर एवं दुर्बल काया के सहारे हिन्दुस्तान के महान शत्रु, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, छुआछत आदि के विरुद्ध संघर्ष करते-करते मर गया-नहीं नहीं अमर हो गया ।- गांधी जी भारत की गरीबी के प्रतिनिधि थे लंगोटी और कन्धे में दुपट्टा पहिन कर, गांधी जी भारत को राष्ट्रात्मा के प्रतिनिधि थे सदाचरण और लोको- पयोगी मार्ग के आदर्श पुरुष के रूप में।”
ज्ञानमदिर के विस्तार को आकांक्षा से आपूरित एक लम्बे आह्वान के कुछ अंश देखिए “ज्ञानमंदिर दस-बारह सहस्त्र पुस्तकों का भंडार है जिनमें महापुरुष, हमारे इतिहासकार सभी विराजमान हैं और आजादी से पहिले इन्हीं पुस्तकों की आड़ में अंग्रेज और नवाब की दृष्टि से बचकर आजादी की लौ जलाई जाती थी। सरदार भगत सिह, आजाद इत्यादि क्रान्तिकारी आजादी की लौ जहां जलाते थे वह सील और अंधेरे में डूबी कोठरियां थीं। लेकिन आज जबकि देश आजाद है हमारी कोठरियां ही रहें तो शायद विकास रो उठेगा । ज्ञान- मन्दिर को आवश्यकता है खुले हुए स्थान की “ (3-10-61)
“अलीगढ़ विश्वविद्यालय में कर्नल बशीर हुसैन जैदी ” विषय पर पत्र ने प्रतिपादित किया है कि ” विश्वविद्यालयों को राजनीतिक नेताओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि महान शिक्षाविदों की है।” पत्र लिखता है कि काश ! सरकार श्री जैदी को विश्वविद्यालय सौंपने से पहले रियासत और अंग्रेज प्रेम विषयक उनके “पिछले इतिहास के पन्नों पर नजर” दौड़ा पाती ” (10-10-61)
हिन्दुस्तान में हिन्दू सम्मेलन सहकारी युग को ‘बहुत अजीब बात’ लगी, “जैसे किसी परिवार के पुरुष अपने बच्चों के खिलाफ आवाज उठाने का इरादा करें। दरअसल इस तरह सोचने का ढंग एकदम गलत है।” हिन्दू सम्मेलन का मुस्लिम सम्मेलन की प्रतिक्रिया के रूप में आयोजन होना तथा भारतीय एकता के सामाजिक आर्थिक आधारों की निंदा होना दुर्भाग्यपूर्ण है।” हिन्दू साम्प्रदायिकता का कारण ‘इलेक्शन’ तथा महासभाई बुद्धि वालों की समझ” बताते हुए सहकारी युग सुस्पष्ट लिखता है ” आज समय की मांग है कि हिन्दू समाज नए नारों से गुमराह होने के बजाय आपसी भाई-चारे पर जोर दें” ताकि “अल्पसंख्यकों में आत्विमश्वास” और “हमारे बिछुड़े हुए अंगों को हमसे” मिलाया जा सके । (14 अक्टूबर 1961)
महाकवि निराला को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पत्र ने लिखा, कि “निराला ने जिस मंजिल को प्राप्त किया उसका मार्ग कंटकाकीर्ण था।” पत्र लिखता है “साहित्यकार व्यवसायी नहीं होता अपितु तप और साधना की वह मूर्ति है जिससे समाज को अपने अस्तित्व का आभास होता है, जिससे मानव अपनी आंतरिक दैवो शक्ति के दर्शन करता है। निराला का जीवन कष्टपूर्ण था और संभवतः समस्त साहित्य सृष्टाओं के साथ यही होता भी है ।” (24-10-61)
1962 के चुनावों में सहकारी युग ने साफ-साफ लिखा कि देश को “कांग्रेस विचारधारा और नेहरू का नेतृत्व चाहिए।” वहीं यह भी. लिखा कि रामपुर नवाब रामपुर के दामाद राजा पीरपुर, बल्देव सिंह आर्य और पुत्ती खां नहीं चाहिए, नहीं चाहिए, नहीं चाहिए” पत्र का मत था कि राजा साहब और श्री आर्य पंडित नेहरू के आदर्श को अपना कर विचार करें कि “रामपुर की भलाई के लिए अपने-अपने हल्कों में वे क्यों नहीं जाते ? रामपुर की भोली जनता इन्हें अपना सकती थी अगर राजा साहब, पीरपुर में अपनो कोठी को बुलन्द करने के बजाय रामपुर में एक कमरा ही बनवा लेते और श्री आर्य गढवाल में आलीशान कोठी बनवाने के बजाय शाहबाद में एक झोंपड़ी ही डलवा लेते ।” (3 फरवरी 1962)
पत्र ने श्री शांति शरण की उम्मीदवारी की यद्यपि विस्तार से समीक्षायें कीं तथापि चुनाव में उनकी विजय की सस्पष्ट कामना की। परिणाम के उपरान्त-पत्र ने लिखा कि संसद की सीट “कांग्रेस के हाथ नही बल्कि रामपुर नवाब के दामाद के हाथों आई, यह कहना मुनासिब होगा ।” उसने इसे लोकतंत्र की नहीं अपितु “पैसे की जीत और फिरकेवारियत की जीत” बताया । श्री शान्ति शरण की पराजय के बावजूद पीठ ठोंकते हुए पत्र लिखता है कि जनसंघ ने लड़ाई लड़ी और ” जनसंघ के श्री शान्ति शरण ने नवाब साहब और राजा पीरपुर को वह सबक सिखा दिया कि जो जनतंत्र की जिन्दगी के लिए निहायत जरूरी था।” (3 मार्च 1962)
10 मार्च 1962 के सम्पादकीय के रूप में रजा लाइब्रेरी, रामपुर के • लाइब्रेरियन साहित्य साधक श्री मौलाना इम्तियाज अली अर्शी से भेंट- वार्ता इतिहास के पृष्ठों पर सदा के लिए दर्ज हो गई है।
चुनावोपरान्त सहकारी युग ने उत्तर प्रदेश के उप मंत्री श्री बलदेव सिह आर्य को स्मरण कराया कि वह प्रदेश के साथ ही साथ “रामपुर के नुमाइन्दे भी हैं । हमें खूब अच्छी तरह याद है कि जब वह इस पत्र के संरक्षक थे और हमने इसी कालम (स्तम्भ) में यह लिखा था कि रामपूर के प्रतिनिधि रामपुर की जनता के प्रति अपने कर्तव्य को पूरी तरह नहीं निभा रहे हैं तो उन्हें कुछ बुरा महसूस हुआ था। श्री आर्य निस्सन्देह योग्य, ईमानदार और आदर्शों के प्रति श्रद्धा रखने वाले आदमी हैं लेकिन पत्र अपेक्षा करता है कि श्री आर्य “प्रदेश के साथ अपने चुनाव -क्षेत्रों की जनता को भी उपेक्षित” नहीं रहने दगे (27 मार्च 1962)
पंचायतों तथा अन्य स्थानीय चुनावों को “दलबन्दी से दूर रखने का विचार स्वागत योग्य है” किन्तु इसकी व्यावहारिकता पर कुछ संदेह उत्पन्न होता है।” अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन के प्रस्ताव की यह कहकर सहकारी युग ने सराहना की। (6 जून 1962)
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के निधन पर सहकारी युग ने युग-बोध से जुडकर लिखा “इधर भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रो श्री गोपाला रेड्डी ने रेडियो के माध्यम से हिन्दी भाषा की जान निकालने के यत्न प्रारम्भ किए तो उधर सत्य ही, हिन्दी के प्राण भारत रत्न पुरुषोत्तम दास टंडन की पवित्र आत्मा ने इस विकृति को सहन करने से इन्कार कर दिया और वह रेड्डी की बेढ़ंगी दुनिया का परित्याग कर देवलोक को प्रस्थान कर गई। टंडन जी नहीं, अपितु वह प्रकाश पुंज आज विलीन हो गया कि जो सर्वदूर व्याप्त अंधकार में, मार्गदृष्टा की स्थिति रखता था। टंडन जी एक महान देशभक्त, विचारों की दृढ़ता के प्रतीक और सादगी के अवतार थे । उनके विचारों की दृढता ने ही महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति के विरोध के लिए उन्हें सिद्ध किया। उनकी तरुणाई में हो उनके संघर्षशील होने के लक्षण स्पष्ट थे ।” (7 जुलाई 1962)
इसी अंक में तत्कालीन रेडियों की हिन्दी नीति जिस पर उर्दूकरण का बुखार चढा हुआ था, से सम्बन्धित एक अत्यन्त खरा और कड़ा सामयिक लेख सहकारी यग ने प्रकाशित किया, जिसका सशक्त रचनाकार सिवाय महेन्द्र गुप्त के और कौन हो सकता है।
नए टैक्सों का प्रायः विरोध होता है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में नए टेक्स लगे । सहकारी युग ने मत व्यक्त किया कि “जनतंत्र की बुनियाद पर, नव निर्माण के इच्छुक समस्त देशों और उनके नागरिकों को टैक्स देना ही होगा। किन्तु सरकार का यह कर्तव्य है कि वह टैक्स देने वाले नागरिकों में, टैक्सों से प्राप्त होने वाली धनराशि के सदुपयोग के बारे में आस्था पैदा कर दे। दरसल आजकल जनता का पैसा काम की बातों में कम और फिजूलियात में ज्यादा लगाया जा रहा है।” सहकारी युग ने आग्रह किया कि ‘प्रशासन को उचित पथ पर चलाने का दायित्व राजनीतिक अंग पर है” इसलिए अगर हमारे “देश की सरकार के सूत्रधार अपने तौर तरीके बदल लें तो यह निश्चित है कि टैक्सों के आकार में वृद्धि करने की आवश्यकता कम होती जायेगी, इतना ही नहीं तो टैक्स अदा करने की आदत भी भारतीयों में बनती जायेगी ।” (4 अगस्त 1962)
इस वर्ष साहित्य के क्षेत्र में डा० देवर्षि सनाढ्य (गोरखपुर विश्वविद्यालय), भारत भूषण (मेरठ) उमेश चन्द्र देवेश, लक्ष्मी नारायण मोदी, आनन्द सागर श्रेष्ठ, प्रो० रणवीर बिहारी सेठ ‘रवि’, श्रीमती उमा, श्रीमती श्रीवास्तव, रामावतार कश्यप पंकज, प्रेमनाथ शर्मा (मेरठ), सुरेश दत्त शुक्ल (मेरठ), हरीश एम० ए०, हृदय नारायण अग्रवाल, महेश राही, शिवादत्त द्विवेदो, रमेश चन्द्र देवेश, रमेश चन्द्र मधु, कुमारी शकुन्तला सक्सेना, मोती लाल श्रीवास्तव, अरुण (प्रयाग), रामरूप गुप्ता, मोहन कुकरेती, ओम किशोर श्रीवास्तव, कवि सुरेन्द्र, वीरेन्द्र मिश्र, अंशुमाली, श्याम लाल श्याम बरेलवी, कुमारी शकुन्तला अग्रवाल, धर्मेन्द्र कुमार कंचन ने अपनी अनेक कविताओं, कहानियों, लेखों, नाटकों आदि से सहकारी युग को समृद्ध किया। मुख्यतः श्री पंकज, महेश ‘राही’, मोहन कुकरेती, हृदय नारायण अग्रवाल, शिवादत्त द्विवेदी, अंशुमाली ने समय-समय पर सहकारी युग को अपनो सशक्त रचनाओं से बल प्रदान किया। महेन्द्र प्रसाद गुप्त की चभती हुई लेखनी से निःस्रत ” वाचाल की मीठी बातें” स्तम्भ वर्ष-पर्यन्त जारी रहा और चुटकी ले-लेकर परिपक्व राजनीतिक टिप्पणियॉं करता रहा।
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समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
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नोट: 25 जून 1988 के सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक अंक में रवि प्रकाश का यह समीक्षा लेख प्रकाशित हो चुका है।